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कन्नड़ का भक्ति साहित्य- श्री रङ्गनाथ दिवाकर

भारतीय साहित्य पत्रिका

कन्नड़ का भक्ति साहित्य- श्री रङ्गनाथ दिवाकर

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    (श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर जी बंबई विश्वविद्यालय के एम. ए., एल.-एल. बी. पदवीधर हैं। विद्याध्ययन के उपरांत आपने अपने जीवन का श्रीगणेश शिक्षण क्षेत्र में प्रेवश करके किया। हुबली के एक स्कूल में कुछ समय शिक्षक का काम किया और उसके बाद कोल्हापुर और धारवाड़ के कालेजों में अंग्रेजी और कन्नड़ के प्राध्यापक रहे। 1920 में पूज्य बापू के प्रभाव में आये। तब से आपका प्रधान कार्यक्षेत्र राजनैतिक क्षेत्र रहा है। इसके साथ ही साथ आपने अध्यात्मिक क्षेत्र में पदार्पण किया। आपकी प्रतिभा अध्यात्मिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में चमकने लगी। अध्यात्म के गहरे अध्ययन और अध्यात्मवादी जीवन-यापन के फलस्वरूप आपने कन्नड़ वाङ्गमय-देवी के चरण-कमलों में सुंदर सुरभित पुस्तक-पुष्प चढ़ा दिये हैं जिनमें उपनिषद रहस्य, अंतरात्मा से, गीता का रहस्य, हरिभक्ति-सुधा, वचनशास्त्र रहस्य, उपनिषत् की कहानियाँ, छांदोग्य और बृहदारण्यकोपनिषत्, रामकृष्ण परमहंस प्रधान हैं और राजनैतिक क्षेत्र के चिंतन तथा क्रियात्मक अनुभव के फलस्वरूप सत्यग्रह और उसका तंत्र, बापू जैसा मैंने देखा आदि अनेक सुंदर ग्रंथ भी कन्नड़ साहित्य को आपकी अपूर्व देन हैं। अंग्रेजी में भी आपने कई पुस्तकें लिखी हैं। आप बहुभाषा-विद् हैं। बंगाल, मराठी, हिन्दी भी अच्छी तरह जानते हैं। नागरिक नामक एक सुंदर कन्नड़ नाटक का आपने हिन्दी में अनुवाद किया है। कन्नड़ साहित्य सम्मेलन के बल्लारी अधिवेशन के अध्यक्ष स्थान को आपने अलंकृत किया था। आपकी कई पुस्तकें हिन्दी में अनूदित हैं और उनके कारण आप का काफी परिचय हिन्दी जगत् को हो चुका है। यहाँ हम आपके द्वारा लिखित हरिभक्ति सुधा पुस्तक की भूमिका अनुवाद दे रहे हैं, जिसमें कन्नड़ भक्ति साहित्य का संक्षिप्त किंतु सुंदर निरूपण है। -अनुवाद)

    भक्ति का उद्गम

    आदि-मानव ने इस विचित्र एवं विविधता से भरी सृष्टि की ओर आँखें खोल के पहले-पहल जब देखा होगा तब वह शायद विस्मय-सागर में डूबा होगा। गरजनेवाली मेघ-माला, चमकने वाली चंचला, आंखों को चकाचौंध करने वाला सूर्य, प्रकाशमान सूर्य-चंद्रादि का उदयास्त, लबालब भरकर बहनेवाली नदियाँ, फेनिल-तरंगों से शोभित सागर, झड़ीदार वर्षा, संचारी समीर आदि सृष्टि की क्रियाओं ने मानव को आदिशक्ति का परिचय कराया। इस अपूर्व-सुन्दर शक्ति-दर्शन से वह कभी विस्मित, कभी भयभीत और कभी श्रद्धायुत होने लगा। उसकी इन प्रथम विस्मय-भावनाओं में ही भक्ति का बीज रहा। वह यह भी समझ गया कि अधिमानव-शक्ति वाले देवता ये अगाध, अचरज कारक प्रयोग करते हैं। इस प्रकार प्रयोग करके दिखाने वाले देव-देवताओं के प्रति उसके हृदय के अंकुरित भय एवं आधर ये ही भक्ति-भाव के प्रथम स्वरूप हैं, ऐसा कह सकते है। परमात्मा की प्रचंड-शक्ति और उससे होने वाले विध्वंस-कार्यों को देखकर उसमें आदर-श्रद्धा का भाव जागृत हुआ होगा। अतः वह परमात्मा के समाने नतमस्तक हो शरणागत हो प्रार्थऩा करने लगा कि परमात्मा की विध्वंसक शक्ति से अपनी हानि हो और उसकी संरक्षक-शक्ति से उसको सुख की प्राप्ति हो। इस प्रकार अगर अगर हम यह कहें तो भूल होगी कि अल्पशक्ति के मानव के अनंत शक्ति युक्त परमात्मा की प्रार्थना करने में भक्ति का प्रथम उदय हुआ है। मानव के हृदयस्थ विस्मयाकाश में भक्ति ही प्रथम उद्भूत धर्मभाव हैं। वह यद्यपि पहले केवल प्रार्थनारूप में प्रकट हुआ तथापि आगे चलकर नानारूप धराण करके नाना प्रकारों से सामान्य जनता को मुक्ति का मार्ग दिखाने में समर्थ हुआ। हम संसार के किसी धर्म के मूल ग्रंथों को उठाकर पढ़ें और किसी राष्ट्र के सर्वप्रथम या आदि-कवियों की रचनायें उठाकर पढ़ें, तो उनमें हमें यह दिखाई पड़े बिना रहेगा कि इसी भक्ति भावना का बीज स्पष्ट रूप में विद्यमान हैं।

    अनुभूति से शांति

    पर, मानव इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ वह परमात्मा की सीमातीत शक्ति-सामर्थों का वर्णन करके, ईश-महिमा का गान करके, भलाई माँगकर, भलाई के अभाव की निंदा करके नहीं रुका। परमात्मा को अगाध शक्ति का यथार्थ स्वरूप जानने की उसकी जिज्ञासा की प्यास नहीं बूझी। हमारे पूर्वज आर्य नाना देवों को प्रशंसा करके थक गये। नाना देव एक ही महादेव के रूप हैं, जब वह उन्होंने जाना तब उस महादेव की मन-भर प्रशंसा की। होम-हवन आदि करके अग्नि के द्वारा देवताओंको आहुति देकर के भी देखा। पर, किसी से उनको अत्यंत सुख मिला, नित्यानंद मिला, परम-शांति की प्राप्ति ही हुई। अंत में उपनिषदों में वर्णित आत्म-स्वरूप को देखने पर ही उन ऋषियों को संपूर्ण समाधान हुआ। तभी उन्होंने ऊंची आवाज से संसार को बता दिया- तेषां शांतिः शाश्वती नेतरेषां, अनुभवियों की शांति ही शाश्वत शांति है, कि दूसरों की। तभी से आज तक आत्मदर्शन पाना, आत्मानंद पाना, अनुभवामृत पीना ही समाज में सबसे प्रधान ध्येय बना है।

    भक्ति-मार्ग

    हमारे पूर्वज केवल अपने ध्यय की घोषणा करके चुप नहीं बैठे। उन्होंने इस ध्याय की प्राप्ति के लिए आवश्यक सभी साधन-मार्गों का शोध करके, उनका प्रयोग करके और उन्हें पूर्णता तक पहुँछा करके हर एक मार्ग का एक एक शास्त्र भी लिख रक्खा है। भक्तिमार्ग या भक्तियोग उनमें से एक है। इस भक्तिमार्ग के सामान्य स्वरूप का औरसंतों की वाणियों में प्राप्त होने वाली भक्ति की भावनाओं का किंचित् निरूपण यहाँ किया जाता है।

    जो शक्ति हम में राग-द्वेष, प्रीति-अप्रीति, क्रोध-भय आदि आवेगों को उत्पन्न करती है उसे हम भावना-शक्ति कहते हैं। शक्ति मार्ग में यही भावना शक्ति-प्रधान अवलंबन है। बुद्धि-शक्ति और क्रिया-शक्तियाँ भी इस मार्ग में हमारी सहायता करेंगी। पर ये प्रधान शक्तियाँ नहीं हैं। परमात्मा के प्रति हमारी जो प्रेम-भावना है उसी के द्वारा हम भक्तिमार्ग में आगे बढ़ते हैं। सा परानुरक्तिरीश्वरे भक्तिः, परमात्मा से अनुरक्त होना ही भक्ति है, यों शांडिल्य-सूत्र में भक्ति का निरूपण किसी के प्रति रही हमारी परमप्रीति ही भक्ति है। अन्य विषयों को हमारी प्रीति को उन विषयों से अलग करके परमात्मा में ही केन्द्रित करना चाहिये और भक्त को मोक्ष की आशा भी किये बिना, हेतु-विहीन हो अपनी प्रेम-भावना को शुद्ध करना चाहिये। कीर्तन, श्रवण, सेवा आदि से इस भावना को संग्रहीन करना या बढ़ाना चाहिये, उस भावना को इधर से उधर, उधर से इधर बहने देकर अपने वश में रखना चाहिये और उसे ईश्वर के चरणों में लगा देना और अंत को संपूर्णतः ईश्वक अर्पण कर देना चाहिए। यह भक्ति-भावना की पराकाष्ठा है, भक्तियोग की चोटी है। इस भक्ति के कई नाम हैं जैसे अहेतुकी, मुख्या या रागात्मिका भक्ति। यह सात्विक भक्ति हैः इस प्रकार की भक्ति से युक्त व्यक्ति सबसे श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति कर लेगा। परम-पद उसको अनायास मिल जावेगा। किसी प्रकार की सकाम सहेतुक भक्ति, जिज्ञासु की या अर्थार्थी की भक्ति गौण समझी जाती है। ईश्वर सर्वश्रेष्ठ है, मैं कनिष्ठ हूँ, ईश्वर सर्वशक्तिमान है, मैं अल्पशक्तिमान् हूँ, आदि की कल्पना में भक्ति का बीज यद्यपि अंकुरति हुआ तथापि वह आगे चलकर भावोपभावों और भाव-छायाओं के रूप में पल्लवित हो, पुष्पित हो शाखोपशाखाओं में विकसित हो एक सुन्दर वृक्ष बन गया है। ज्यों ज्यों भक्ति को ईश्वर की ज्ञान-बल-क्रियायें सूझती जायंगी त्यों त्यों उसके हृदय में प्रेम भाव अंनत रूप धारण करेगा और कई बार कवि-प्रतिभा युक्त भक्तों के मुंह से दिव्य काव्य का वसन पहनकर बाहर उमड़ बहेगा। इसी कल्पना ने कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, विकसित हो इत तरह की कई विविध कल्पनाओंको जगह दी कि ईश्वर विश्व की सृष्टि-स्थिति-लय का कारण है, वही विश्व का आधार है, विभु है, सर्वांन्तर्यामी है। इस प्रकार होने से भी ईश्वर तो भक्त से दूर ही रहा। पर अवतार की कल्पना के जन्म से भक्तिमार्ग को एक तरह की विशिष्ट कांति मिली। इसके पूर्व भक्ति-मार्ग में शांत-भाव का ही प्राधान्य रहा और ईश-महिमा का वर्णन, ईश की कीर्ति का गान, परमात्मा के गुण कीर्तन, प्रचार में थे। इसके उपरांत ईश्वर को स्वामी के रूप में, स्नेही के रूप में, पिता के रूप में, प्रियतम के रूप में, पूजने के भाव रूढ़ि में आये। इनमे से अंतिम भाव को अर्थात् मधुर-भाव को अत्यंत उच्च-स्थान प्राप्त हुआ और वही सब तरह की भक्तियों का समन्वय माना गया। कई मुनियों ने इसी भाव के द्वारा परम-पद को प्राप्त कर लिया। अपने और अन्य साधकों के अनुभवों को एकत्रित कर उन्होंने भक्तिशास्त्र का निर्णय किया। शांडिल्य सूत्र और नारद के भक्ति-सूत्र भक्तिशास्त्र के सूत्रग्रंथ हैं। ये दोनों ग्रंथ भक्ति साहित्य के मध्य-बिंदु हैं। इन्हीं के आधार पर कई संतों ने अपने अपने अनुभवों और आराधना के तरीकों के अनुसार कई भक्ति-ग्रंथों की रचना की है। इन ग्रंथों के विषयों की संपूर्ण समालोचना इन छोटे से लेख में करना कठिन-सा है। इनता ही यहाँ कहना पर्याप्त होगा कि विष्णु, शिव और शक्ति इन तीन देवताओं की भक्ति लोकप्रिय हुई और सूर्य-भक्त, गणेश-भक्त, दत्तात्रेय-भक्त, शक्ति-भक्त, राम-भक्त, कृष्ण-भक्त आदि कई भक्ति संप्रदाय बने।

    यह भक्ति मार्ग अन्य ज्ञान-कर्म मार्ग की अपेक्षा अधिक लोक-प्रिय बन गया इसका कारण यह है कि इसमें साधनों की सुलभता है, कठोर नियमों का अभाव है, जाति, लिंग उम्र आदि का कोई बंधन नहीं है। यह सभी के लिए मुक्त, खुला हुआ मार्ग है। इस मार्ग पर अग्रसर होनेवालों को एक ही पूंजी की आवश्यकता है और वह है प्रेम। यह प्रेम सब को परिचित है। ऐसा कौन आदमी इस भूमि पर है जिसमें प्रेम नहीं है। सब में प्रवाहित इस प्रेम-प्रवाह को परमात्मा की ओर घूमाना ही भक्ति कहलाता है। इस भक्ति की महिमा भागवत और गीता में गायी गई है जैसे-

    यदि भवति मुकुंदे भक्तिरानन्दसांद्रा।

    विलुठति चरणाब्जे मोक्ष-साम्राज्य-लक्ष्मीः।।

    भक्त के चरणों में मुक्तिवनिता लुढ़केगा। भक्त कितना ही नीच क्यों हो, वह धर्मात्मा हो सकता है, इस प्रकार का आश्वासन श्री कृष्ण ने भक्तों को दिया है। में भक्तः प्रणश्यति, मेरे भक्त का नाश नहीं, यो में भक्तः मे प्रियः, मेरा भक्त मुझे प्रिय है, भव मद्भक्तः- मेरे भक्त बनो, ज्ञानी तु आत्मैव मे मतम्- ज्ञानी भक्त तो मैं ही हूँ आदि छोटे छोटे वाक्यों से श्रीकृष्ण ने भक्ति की महिमा की प्रशंसा की है।

    कर्नाटक में भक्ति

    मोक्षसाम्राज्य के सिंहासन की राजवीथी भक्ति मार्ग कर्नाटक में प्राचीन समय से प्रचलित है। बीच बीच में वह कभी-कभी लोगों को अधिक प्रिय बन गया है। भक्ति का जन्म यद्यपि दक्षिण भारत में हुआ था तथापि भक्ति देवी वृद्धिं कर्नाटके गता-कर्नाटक में फूली फली। कर्नाटक में सर्वप्रथम श्रेष्ठ भक्त पुराणकाल के श्री हनुमान थे जो श्री रामचन्द्र जी के महान सेवक रहे। उनमें दास्यभक्ति की पराकाष्ठा दीख पड़ती है। वीरशैव संप्रदाय के प्रवर्तक श्री वसवेश्वर आदि शैव भक्तों ने भी भक्ति को अग्र-स्थान दिया है। इतिहास काल में वायुदेव के तृतीय अवतार माने जाने वाले मध्वाचार्यजी भी परम-भक्त हुए हैं। उनकी दिव्य स्फूर्ति से कर्नाटक में वैष्णव संतमंडली जो दासकूट नाम से प्रसिद्ध हुई है, स्थापित हुई और उससे भक्ति का अधिक प्रचार हुआ। इतिहासज्ञों का कथन है कि बंगाल के प्रसिद्ध गौरांग, चैतन्यपंथी भी मध्वाचार्य के ऋणी हैं। संतों में श्रेष्ठ श्री पुरंदरदास जी ने तो कन्नड़ में भक्ति को एवं भक्ति साहित्य अत्यंत उच्च स्थान दिला दिया। उन्हीं की वाणी से उन्हीं के कीर्तनों से स्फूर्ति पाकर तेलुगु भाषा में संत त्यागराज ने असंख्य भक्तिगीतों की रचना की। वैष्णव भक्तों की भांति शैव एवं वीरशैवों ने भी कई भक्ति-रस से भरे गीतों की रचना की है। इनके गीतों से कन्नड़ साहित्य की अपार श्रीवृद्धि हुई और इनका काल कन्नड़ साहित्य का वसंतकाल समझा जाता है।

    सन्तों के सद्गुण

    कर्नाटक के संत संप्रदाय के करीब सभी संतों में और उनके रचित गीतों में कुछ समान गुण दृष्टिगोचर होते हैं। उन्होंने यह विश्वास नहीं किया कि परमात्मा केवल बुद्धिगम्य है और उन्होंने तत्वज्ञान को इतना अधिक महत्व दिया। तत्वज्ञान की दृष्टि से करीब सभी कर्नाटक संत माध्व संप्रदाय के द्वैत है। उनके रचित कुछ ही गीत उनके संप्रदाय का निरूपण करते हैं और अन्य सभी गीतों में परमात्मा के प्रति प्रेम भक्ति ही हैं। कोई भी देश क्यों हो, जहाँ जहाँ मानव के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम-तरंगें उठेंगी वहाँ वहाँ इन गीतों का गुणग्रहण हुए बिना रहेगा। उन्होंने बुद्धिमार्ग को तजकर अनुभूति के मार्ग का अनुसरण किया है। आत्मानुभूति जहाँ कहीं भी हो एकसी है। संतों ने एक उद्देश्य से गीतों की रचना की है। उनका वह उद्देश्य यह है कि परमात्मा के प्रति अपने हृदयों में उमड़नेवाली भाव तरंगों को मुक्त बहने देना। उनमें बनावटीपन दंभ के लिए स्थान नहीं है। उनके सभी गीत गाने योग्य है। उन्होंने ऐसी कन्नड़ भाषा में लिखा है कि सामान्य मनुष्य भी उसे समझ सकता है और उनसे अपार आनंद की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार कन्नड़ के संतों ने संस्कृत के भक्ति साहित्य का भंडार फोड़कर सरल कन्नड़ में कर्नाटक की जनता की भक्ति का पीयूष पिलाया है। भाव-राज्य में विहार कर हमें अपनी मीठी वाणी द्वारा मधुर-प्रेम-रस का पान कराया है।

    ये सामान्य गुण सभी संतों में पाये जाते हैं, पर हर एक का एक विशिष्ट गुण भी है। इस नश्वर देह के प्रति उपेक्षा, संसार के प्रति वैराग्य और परमात्मा में भक्ति, मुक्ति की आशा आदि के प्रति अनुराग सब में पाया जाता है। लेकिन पुरंदरदास के गीतों में प्रसाद गुण परंपरा आज तक कर्नाटक में चली आती है। गुजरात में उनका प्रभाव पड़ा होगा और बहुत से लोग उनके संप्रदाय की ओर झुके होंगे।--- अनुवादक

    श्री मध्वाचार्य जी का जन्म दक्षिण कन्नड़ ज़िले में उडुपी के पास पाजक या पाहुका क्षेत्र में सन् 1199 में विजयदशमी के दिन हुआ। उनकी माता का नाम वेदवती और पिता का नाम मध्यगेह भट्ट था। पहले वासुदेव नाम रखा गया था। उडुपी के अच्युत प्रेक्ष नामक गुरु से संन्यास की दीक्षा दी गई और पूर्णप्रज्ञ नाम दिया गया। अच्युत प्रेक्ष ने अपने पीठ पर इनको बिठाया और नाम रखा आनन्दतीर्थ। यही आनन्दतीर्थ जी मध्वाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपका द्वैत सिद्धान्त बहुत प्रसिद्ध है।

    संत वाणियों का कार्य

    कर्नाटक में संतों की वाणियों से जो लोक-शिक्षा का कार्य हुआ वह भी कम नहीं ह। भक्ति के तत्व, भक्ति-भाव, उसका निरूपण, विवरण आदि को उनमें देखा जा सकता है। संत तो स्वयं श्रेष्ठ साधक थे, अहेतुक निर्मल भक्ति से प्रेरित थे। उच्च आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त थे। इसलिए उन्होंने स्वयं जिस भक्ति के विविध भावों का अनुभव प्राप्त किया था उसे सुंदर, अंलकारमय कन्नड़ भाषा के ढांचे में ढालकर पंडितों-पामरोंके सम्मुख रखा है। विष्णुपुर में उद्भुत इस दिव्य गंगा का जल छोटे-छोटे सोने के कलशों में भरकर संतों ने बालकों-बालिकाओं, दीनो-हीनों को देकर उन्हें पावन कर दिया। कोश, निरुक्त, व्याकरण आदि की सहायता के बिना सहज में समझ में आनेवाले संस्कृतस्थ तत्वों और भक्तिभावों को अपने अनुभव से कन्नड़ भाषा के माध्यम से अपने गीतों में ऐसा व्यक्त किया है कि सामान्य अपढ़ आदमी भी उन्हें सुनकर ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उन्होंने मठ-मंदिरों में आबद्ध धर्म-तत्वों को घर घर पहुँचाया है। कुछ ही लोगों के लिए खोले हुए मुक्ति-मंदिर को सब के लिए खोल दिया है। कठिन तत्वों को जनसाधारण तक पहुँचाकर उन्हें प्रचलित करने का श्रेय इन्हीं संतों को प्राप्त है। इनकी वाणियाँ गाने योग्य होने के कारण कर्नाटकी संगीत शास्त्र को भी प्रोत्साहन मिल गया है। भावहीन संगीत रसहीन फल की भाँति, सुवास-हीन सुमन के समान है। भाव जितना ही पवित्र एवं उच्च होगा उतना ही गीत मीठा एवं मधुर लगेगा। हम कहते है कि अंदर और बाहर जो शुद्ध हो वही वास्तव शुद्ध है, त्रिकाल में जो शुद्ध हो वही शुद्ध है। उसी प्रकार जिसमें भाव, शब्द, अर्थ और स्वर ये चारों शुद्ध एवं शास्त्रीय हों तो वही उत्तम संगीत है। इस प्रकार का श्रेष्ठ संगीत संतों ने हमें प्रदान किया है।

    भक्ति-साधना

    यह कहा जा सकता है कि धर्म आदमी को ऊंचे स्तर पर पहुँचाने वाला मार्ग है। अपना आज का स्तर जानकर, वहाँ से आगे जाने का प्रयत्न करना ही मुमुक्षता है। यदि एक बार मानव ने यह प्रयत्न शुरू किया तो वह धीरे धीरे आगे आगे जा सकता है। उसमें विद्यमान पशु-प्रवृत्तियाँ लुप्त होंगी और देवत्व प्राप्त करने आगे बढ़ सकेगा। उसके द्वारा भाव, विचार, आचार आदि ऊंचे स्तर पर पहुँच सकेंगे। वे हीमोक्ष के साधन कहलावेंगे। ऐसे साधनों में आजकल के समय में भक्ति ही सब से श्रेष्ठ साधन है, यों भक्त एवं भागवत कहते आये हैं। एक और दृष्टि से भी भक्ति-साधन की ओर देखना आवश्यक है और वह है कि हम में विद्यमान भावना शक्ति का संस्कार और उससे हो सकने वाला समाज-हित।

    हम दिन-रात यह प्रयत्न करते हैं कि बाह्य शक्तियों का संस्कार करके उन्हें अपने वश में रखे और उनका अपने सुख के लिए उपयोग करें। अग्नि, वायु, बिजली का उपयोग तो हम घोड़ों-बैलों की तरह कर रहे हैं। इसलिए बाह्य जगत पर मनुष्य का अधिकार कई गुना बढ़ गया है। किंतु अंतः शक्तियों पर जितना चाहिये उतना अधिकार नहीं कर पाये हैं। इसलिये जहाँ कहीं भी देखिये वहाँ स्वार्थ, कपट, क्रूरता-शोषण आदि दीख पड़ते हैं। अगर इन सब को मिटाकर समस्त मानव-कुल में एक ही एक बंधु-भाव संचारित करना चाहते हैं तो हमें अपनी आंतरिक शक्तियों पर प्रभुता जमानी चाहिये। जैसे जैसे यह प्रभुता बढ़ती जायगी वैसे वैसे आत्म-संयम बढ़ेगा, राग-द्वैपादिता का हमला कम होता जायगा, शांति, बंधु-भाव, प्रेम आदि का साम्राज्य स्थापित होगा। भावना-शक्ति को अच्छा संस्कार भक्ति-साधन से मिल सकेगा। क्योंकि भक्ति साधन मं भावना-शक्ति का शुद्धीकरण, उसका संग्रह, परमात्मा के चरणों में उसका अर्पण ये ही प्रधान बातें हैं।

    इस प्रकार भक्ति-साधन तो केवल व्यक्ति का ही उद्धार नहीं करता बल्कि समाज में सुख-शांति, समानता आदि की स्थापना करने में सहायता पहुँचा सकता है, अतः वह सर्वोपकारी है।

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