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गुरु बाबा नानक जी - अ’ल्लामा सर अ’ब्दुल क़ादिर

मुनादी

गुरु बाबा नानक जी - अ’ल्लामा सर अ’ब्दुल क़ादिर

मुनादी

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    दुनिया के उन चीदा बुज़ुर्गों में जिन्हों ने अपनी ज़िंदगियाँ ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की रहनुमाई के लिए वक़्फ़ कर दीं और अपने ज़ाती आराम और आसाइश पर ख़ुदा के बंदों की ख़िदमत को तरजीह दी गुरू बाबा नानक जी बहुत दर्जा रखते थे।हमारे पयारे वतन का वो गोशा जो पाँच दरियाओं से सैराब होता है और उसी निस्बत से पंजाब कहलाता है इस इम्तियाज़ पर जिस क़द्र नाज़ करे बजा है कि गुरू नानक जी ने उसके एक गाँव में जन्म लिया।उस गाँव का पुराना नाम तलवंडी है और अब वो एक ख़ास्सा बड़ा क़स्बा है जिसे गुरू साहिब के नाम पर ननकाना कहते हैं और ज़ियादा अदब से “ननकाना साहिब” पुकारते हैं।गुरू नानक जी सिख के बानी हैं और हर चीज़ जो उनसे या उनके जानशीन से मंसूब है इ’ज़्ज़त से “साहिब” कह के पुकारी जाती है।हमारे सिख भाइयों की बड़ी मज़हबी किताब जिस में गुरू नानक जी के भजन और उनकी मुफ़ीद ता’लीम के अक़वाल दर्ज हैं “ग्रंथ साहिब” कहलाती है। सिखों की सब से बड़ी इ’बादत-गाह जो अमृतसर में है” दरबार साहिब” के नास से मंसूब है।एक खेत जिसे मवेशी खा गए थे और जिसकी बाबत मशहूर है कि वो गुरू साहिब की दुआ’ से वैसा ही हो गया था जैसा पहले था अब तक अक याद-गारी गुरूद्वारे की जगह है और “कियारा साहिब“ कहलाता है।एक दरख़्त जिस के साए में गुरू नानक साहिब अपनी जवानी में बैठे थे “तंबू साहिब” बन गया।एक कोठरी जिस में एक दफ़्आ’ थोड़ी सी देर के लिए उन्हें बंद किया गया वो “कोठरी साहिब” हो गई।अब देखना ये है कि उस नेक दिल इंसान को ये बड़ाई किस बिना पर मिली कि उनकी ज़िंदगी में भी उस ज़माने के बहुत से लोग उनके मो’तक़िद हो गए और उनके इस दुनिया से गुज़रने के बा’द भी लाखों बंदगान-ए-ख़ुदा उनकी पैरवी पर फ़ख़्र करते हैं और उनके नाम पर अपनी जान तक देने कै तैयार हैं।

    गुरू नानक साहिब अंग्रेज़ी सालों और महीनों के हिसाब से अप्रैल 1429 ई’स्वी में तलवंडी के एक मुअ’ज़्ज़ज़ बाशिंदे के घर पैदा हुए।इस वाक़िए’ को भी पूरे पाँच सो बरस नहीं हुए कि पंजाब की मर्दुम-ख़ैज़ सर-ज़मीन अपने उस सपूत के क़दम छूती रही। मशहूर शाइ’र मोहम्मद इ’क़बाल मरहूम की तरह उन्हीं के अल्फ़ाज़ में मैं ये कह सकता हूँ।

    नानक ने जिस चमन मे वहदत का गीत गाया।

    मेरा वतन वही है मेरा वतन वही है।।

    इस वहदत के गीत से गुरू नानक को वो ला-ज़वाल शोहरत नसीब हुई जिसकी ब-दौलत उनका नाम आज तक ज़िंदा है और हमेशा ज़िंदा रहेगा।इस वहदत की ता’रीफ़ क्या है?लफ़्ज़-ए-वहदत इस शे’र में दो मा’नों में इस्ति’माल किया गया है।एक ये कि गुरू नानक जी ने ख़ुदा की वहदत का सबक़ ताज़ा किया और उन्होंने बे-धड़क पुकार कर कह दिया कि दुनिया का पैदा करने वाला एक है और इस अ’क़ीदे की पुख़्ता बुनियाद पर वहदत का वो महल ता’मीर किया जिसमें ख़ुदा के सब बंदे एक हो जाते हैं और हिंदू और मुस्लिम,ई’साई और ज़रतुशी सब एख दूसरे को भाई-भाई समझते हैं। ग़ैरियत उठ जाती है और यगानगत उसकी जगह लेती है।अमीर मीनाई लखनवी ने इस वहदत की ता’रीफ़ क्या ख़ूब लिखी है।

    सब दुइ का ही ये पर्दा है जो वहदत हो जाए

    गर्दन-ए-शैख़ में ज़ुन्नार बरहमन डाले

    गुरू नानक ने सबसे बजा काम यही किया है कि जब से होश संभाला उन्हों ने अपने इस वतन को ये समझाने और सिखाने की कोशिश की कि मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़ों के इम्तियाज़ात ज़ाहिरी और आ’रज़ी हैं और अस्ल में सब इंसान एक हैं और उन्हें आपस में मोहब्बत रखनी चाहिए।वो शैख़ और बरहमन दोनों को नसीहत करते रहे कि मज़हब की अस्लियत हासिल करो सिर्फ़ ज़ाहिर-दारी पर फूलो।

    गुरू नानक में ये ख़ुसूसियत उनके बचपन से मौजूद थी कि वो बातिन को ज़ाहिर पर तरजीह देते थे।मसल मशहूर है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”। उस होनहार बिरवान का ये हाल था कि गुरू के पास पढ़ने गए तो तख़्ती लिखते लिखते उसको रूहानियत का सबक़ पढ़ा दिया।उसके बा’द संस्कृत सीखने के लिए एक पंड़ित के शागिर्द हुए तो उसे भी इ’ल्म-ए-बातिन से हिस्सा दे आए।फ़ारसी पढ़ने के लिए एक मौलवी की शागिर्दी की तो उसकी तवज्जोह भी सूरत से हटा कर अस्लियत की तरफ़ फेर दी।

    कहा जाता है कि गुरू नानक जी के वालिदैन को उनकी इब्तिदाई उ’म्र में उनसे बार बार मायूसी हुई कि जिस पढ़ाई में उन्हें लगाया गया उस पर उन्हों ने काफ़ी दिल लगाया।मगर वाक़िआ’ ये है कि उनके वालिदैन उनके कामों को ज़ाहिर की आँख से देख कर मायूस होते थे कि उनका इकलौता बेटा कारोबारी आदमी नहीं बनेगा और दुनियावी मा’नों में कामयाब नहीं हो सकेगा।लेकिन और बहुत से मर्दुम-शनास लोग गुरू नानक के बाप के जानने वालों में ऐसे थे जो ये पहचान रखते थे की इस लड़के में बड़ा होने की निशानियाँ हैं और कहते थे की ये किसी दिन बहुत बड़ा आदमी होगा।सिर्फ़ बड़े आदमी के मा’नी समझने में उन मोअ’ज़्ज़ेज़ीन और गुरू नानक के वालिदैन के ख़यालात में फ़र्क़ था और वालिदैन अपने बेटे की दौलत की तरक़्क़ी चाहते और दूसरे ज़ियादा समझदार दोस्त अख़्लाक़ी अ’ज़मत और इ’ल्म-ए-बातिन के आसार उन में देखते थे।

    बा’ज लोगों का ख़याल है कि गुरू नानक पढ़ाई में दिल लगाने के सबब ता’लीम से काफ़ी बहरा हासिल कर सके मगर उनके एक फ़ाज़िल सवानिह-निगार की ये राए मुझे दुरुस्त मा’लूम होती है कि उन्होंने अपने तीनों उस्तादों से थोड़े अ’र्से में बहुत कुछ सीख लिया था।उनकी तबीअ’त ज़हीन थी और हाफ़िज़ा उ’म्दा।कोई और जो कुछ मुद्दत की मेहनत के बा’द सीखता वो थोड़े दिनों में सीख लेते थे।इसका बेहतरीन सुबूत ये है कि ग्रंथ साहिब में मा’रिफ़त-ए-इलाही के जो बारीक नुक्ते भरे हुए हैं वो बता रहे हैं कि गुरू नानक साहिब का दाइरा-ए-इ’ल्म ख़ास्सा वसीअ’ था और उन्हें हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों के उसूलों से गहरी वाक़फ़िय्यत थी।इसी तरह उनकी ज़बान गो पंजाबी थी लेकिन उनका कलाम नज़्म-ओ-नस्र में फ़ारसी और संस्कृत में ब-कसरत मौजूद है।

    मज़हबी उसूलों के सिखाने के लिए जो तरीक़ा गुरू साहिब ने शुरुअ’ से इख़्तियार किया और आख़िर तक निबाहा वो ये था कि आसान मिसालों,सीधी-सादी कहानियों और सहल इशारात से बड़े-बड़े मस्एले लोगों को समझा देते थे।उनके लिए सबक़-आमोज़ वाक़िआ’त के मुतअ’ल्लिक़ बे-शुमार रिवायात मशहूर हैं। उनमें से दो एक नमूने के तौर पर यहाँ पेश करता हूँ।

    मस्लन वो वाक़िआ’ लीजिए कि जब गुरू नानक की ज़ुन्नार-बंदी की रस्म अदा होने लगी तो अ’ज़ीज़ रिश्ता-दार जम्अ’ हुए और बरहमन को बुलाया गया कि वो धागा जिसे ज़ुन्नार कहते हैं उनके गले में डाला जाए। नव-उ’म्र नानक जी ने पूछा ये धागा क्यूँ बांधते हो? उसने कहा बड़ों से ये रस्म चली आई है।इसके पहने ब-ग़ैर आदमी शूद्र शुमार होता है और इसके पहनते ही ऊँची ज़ातों में दाख़िल हो जाता है और दोनों जहान में उसका भला होता है। ये सुन कर नव-उ’म्र मगर दाना लड़का बोला,पंड़ित जी धागा किसी की बरतरी कैसे करता है।ये तो जिस्म के साथ ही रह जाता है और जो मंज़िल रूह के लिए इस ज़िंदगी के बा’द पेश होती है उस में वो उस के साथ नहीं जाता।वहाँ तो हर शख़्स उस धागे के ब-ग़ैर जाता है।मुझे वो धागा दीजिए जो आने वाली ज़िंदगी में मेरी रूह के साथ जाए।इस पर बरहमन ने सवाल किया कि “तुम ही बताओ कि जो धागा तुम चाहते हो कैसा होता है और कहाँ से मिल सकता है”। “गुरू नानाक ने जवाब दिया” रूह के लिए जो पाएदार धागा दरकार है वो ज़िंदगी में नेक काम करने,अच्छे ख़यालात रखने और अख़्लाक़ की सच्ची पाबंदी से बन सकता है। रहम-दिली की रूई लो उससे क़नाअ’त का सूत कातो उस में पाकीज़गी की गिरह लगाओ और सच्चाई से उस धागे को बल दो। इन नेकियों से तुम्हारी रोज़- रोज़-मर्रा की ज़िंदगी मुरक्कब हो तब तुम्हारी रूह के गिर्द उस धागे का हल्क़ा होगा जो कभी नही टूटता है। जिस शख़्स की गर्दन ऐसे धागे से मुज़य्यन हो वो सच-मुच बरकत वाला है फिर उसे किसी और धागे की ज़रूरत नहीं। पस मुझे उस धागे की ज़रूरत नहीं जो बाज़ार में सस्ते दामों में मिलता है और मैला और पुराना होकर टूट जाता है।

    हर रग-ए-मन तार गश्तः हाजत-ए-ज़ुन्नार नीस्त

    इसी रिवायत में जैसे एक बड़ा सबक़ हिंदुओं के लिए है उसी तरह एक और रिवायत में मुसलमानों के लिए एक बड़ा सबक़ मौजूद है।गुरू नानक जी के अ’हद के बड़े मुसलमानों में एक साहिब नवाब दौलत ख़ान थे जो उनको बहुत अच्छा जानते थे।एक क़ाज़ी साहिब नवाब साहिब की मज्सिद में नमाज़ पढ़ते थे।एक मर्तबा गुरू नानक जी की क़ाज़ी साहिब से बहस हुई।गुरूजी कह रहे थे कि हिंदू हिंदू नहीं रहे और मुसलमान मुसलमान नहीं रहे।क़ाज़ी साहिब ने कहा हिंदुओं की बाबत तो हम कह नहीं सकते मगर इस्लाम के करोड़ों मानने वाले अच्छे मुसलमान हैं।गुरू जी ने अपने रफ़ीक़ भाई मर्दाना से कहा कि रबाब छेड़ो और ख़ुद उस के साथ एक गीत गाना शुरुअ’ किया जिस का ख़ुलासा ये है कि सच्चा मुसलमान कहलाने का इस्तिहक़ाक़ पैदा करना मुश्किल है।जो मुसलमान होने का दा’वेदार हुआ उसे चाहिए कि पहले इस्लामी नेकियाँ और सिफ़ात हासिल कर ले।उसे पहले मज़हब सीखना चाहिए जिसका वा’ज़ ख़ुदा के सच्चे मानने वालों ने किया है। ग़ुरूर और तमअ’ से वो अपने आपको ख़ाली कर दे।ख़ुदा की रज़ा के आगे सर-ए-तस्लीम ख़म कर के इज्ज़ और इन्किसार की आ’दत करे।पैदाइश और मौत का ख़ौफ़ दिल से निकाल दे।जो ख़ुदा की मर्ज़ी हो उसे ख़ुशी से क़ुबूल करे और ये अ’क़ीदा रखे कि ख़ुदा ही सब कुछ है और उसके सिवा कुछ नहीं।ख़ुद-ग़र्ज़ी के सब ख़याल दिल से निकाल दे।सब इंसानों से रहम-दिली और मेहरबानी का बरताव करे।जो शख़्स ये सब कर सके वो दर हक़ीक़त मुसलमान कहलाता है और ब-ग़ैर इसके नहीं।

    थोड़ी देर के बा’द गुरू नानक ने भाई मर्दाना से फिर कहा ज़रा रबाब फिर छेड़ना और यूँ नग़्मा-सरा हुए।

    “रहम को मस्जिद बना ईमान और सच्चाई की जा-नमाज़ ले,इंसाफ़ को अपनी मुक़द्दस किताब समझ,मीठा चलन तुमहारा का’बा हो।सच तुमहारा रूहानी मुर्शिद हो और दूसरे की भलाई तुम्हारी नमाज़ हो और घबराने वाली तबीअ’त तुमहें तस्बीह का काम दे।”

    काश हमारे भाई अपने वतन के इस क़ाबिल-ए-इज़्ज़त फ़र्ज़न्द की ज़िंदगी और अक़वाल से सबक़ लेकर वो तरीक़ा इख़्तियार करें जिसकी गुरू बाबा नानक ने हिंदुओं और मुसनमानों को मुख़ातब बना कर दुनिया भर को तल्क़ीन की है,तो जिन मुश्किलात का आज हम को सामना है वो सब हल हो जाएं। सब झगड़े मिट जाएं। गुरू साहिब की तरह सुल्ह-ए-कुल सबका मस्लक होना चाहिए।वहदत की ता’लीम के लिहाज़ से उनके गुरू साहिब ने ऐसी बिरादरी पैदा की थी जो हिंदुओं और मुसलमानो में बाहमी मोहब्बत की ज़ंजीर की एक कड़ी थी।

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