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हज़रत मख़्दूम दरवेश अशरफ़ी चिश्ती बीथवी

मुनीर क़मर

हज़रत मख़्दूम दरवेश अशरफ़ी चिश्ती बीथवी

मुनीर क़मर

MORE BYमुनीर क़मर

    हज़ारों साल तक ही ख़िदमत-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कर के

    ज़माने में कोई एक बा-ख़ुदा दरवेश होता है

    इस ख़ाकदान-ए-गेती पर हज़ारों औलिया-ए-कामिलीन ने तशरीफ़ लाकर अपने हुस्न-ए-विलायत से इस जहान-ए-फ़ानी को मुनव्वर फ़रमाया और अपने किरदार-ए-सालिहा से गुलशन-ए-इस्लाम के पौदों को सर-सब्ज़-ओ-शादाब रखा।

    अगर ग़ज़नवी-ओ-ग़ौरी जैसे मुबल्लिग़-ए-आ’ज़म सलातीन के अहम मा’रकों को हम फ़रामोश नहीं कर सकते और उनके कारहा-ए-नुमायाँ-ओ-मुजाहिदाना को भुलाया नहीं जा सकता तो फिर कोई वजह नहीं है कि सुल्तानुल-औलिया, हिन्दुल-औलिया हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह-अ’लैह जैसे ज़बरदस्त बा-कमाल साहिब-ए-ईमान-ओ-दीन के तसर्रुफ़ात से क़त’-ए-नज़र किया जाए। जो आफ़ताब-ए-इस्लाम बन कर उफ़ुक़-ए-अजमेर से तुलूअ’ हुए और हिन्दुस्तान के गोशे-गोशे को अपने नूर-ए-विलायत से मुन्नवर फ़रमाया।

    जब इस आफ़ताब-ए-विलायत की ज़ियाबार किरनों ने सरज़मीन-ए-बेथू शरीफ़ को रौशन-ओ-मुन्नवर फ़रमाया तो सूबा-ए-बिहार के गया ज़िला’ में गया शहर से तक़रीबन तीस मील शिमाल,साहिल-ए- फ़लगू नदी पर बेथू शरीफ़ नाम की क़दीम बस्ती का तारीख़ी दौर तक़रीबन 500 साल क़ब्ल शुरू’ होता है उसको एक रिंद-ए-हक़-परस्त-ओ-मस्त-ए-मय-ए-अलस्त हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश अशरफ़ शाह-ए-विलायत रहमतुल्लाह-अ’लैह ने अपनी तवोज्जोहात का मर्कज़ बनाया। और यहाँ तशरीफ़ फ़रमा कर रुश्द-ओ-हिदायत की ऐसी शम्अ’ रौशन की जिस की रौशनी से हज़ारों तारीक-दिल मुन्व्वर हो गए। सैकड़ोंड़ो गुम-कर्दा-ए-राह मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँ गए। जो सर-ज़मीन-ए-मघूँ और कोलहूँ का मस्कन थी जिसे बेथरू के नाम से जाना जाता था, बेथू शरीफ़ के नाम से आन की आन में मशहूर हो गई। इस सर-ज़मीन पर एक से एक उ’लमा-ए-दीन और आ’रिफ़-ए-कामिल का ज़ुहूर हुआ। आप का मज़ार-ए-पुर-अनवार इसी सर-ज़मीन पर आरासता-ओ-पैरासता है। जो अपने रूहानी फ़ुयूज़-ओ-बरकात के ऐ’तिबार से एक मुनफ़रिद मक़ाम रखता है जहाँ सैकड़ों साल से फ़ुयूज़-ओ-हसनात का सर-चश्मा जारी-ओ-सारी है।

    नौवीं सदी हिज्री की तारीख़ में क़ुतुबुल-कामिलीन सिराजुस्सालिकीन हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवें अशरफ़ चिश्ती अशरफ़ी रहमतुल्लाहि-अ’लैह की ज़ात-ए-बा-बरकात एक मश’अल की मानिंद निहायत रौशन और ताब-नाक नज़र आती है।

    आपके वालिद-ए-माजिद क़ुतुबुल-औलिया आ’ला हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह मुबारक अशरफ़ बुलबुला रहमतुल्लाह-अ’लैह थे। जिन के मोरिस-ए-आ’ला और तमाम आबा-ओ-अज्दाद अपने बुज़ुर्गों के साया में किछौछा शरीफ़ में सुकूनत-पज़ीर थे। हज़रत मख़्दूम मुबारक अशरफ़ रहमतुल्लाह-अ’लैह का सिलसिला-ए-नसब पाँचवी पुश्त में सुल्तानुल-हिंद क़ुद्वतुल-कुबरा हज़ मख़्दूम औहदुद्दीन अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी किछौछवी रहमतुल्लाह-अ’लैह से मिलता है जो इस तरह है।

    हज़रत मख़्दूम शाह मुबारक बिन हज़रत मख़्दूम शाह अबू सई’द जा’फ़र उ’र्फ़ शाह लाडघटा नवाज़ बिन हज़रत मख़्दूम शाह हुसैन क़िताल बिन हज़रत मख़्दूम हाजी अ’ब्दुर्रज़ाक़ नूरुल-ऐ’न बिन हज़रत मख़्दूम सुल्तान सय्यद अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी किछौछवी रहमतुल्लाह-अ’लैह।

    हज़रत मख़्दूम सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी किछौछवी रहमतुल्लाहि-अ’लैह की शख़्सियत को दुनिया-ए-इस्लाम-ओ-अहल-ए-हिन्द में ला-मुंतहा शोहरत-ओ-अ’ज़मत हासिल है और अहल-ए-दुनिया-ओ-दीन आपके फ़ैज़ान-ए-बे-पायाँ से शब-ओ-रोज़ फ़ैज़याब हो रहे हैं। आपकी ज़ात-ए-मुक़द्दस को अल्लाह रब्बुल-इ’ज़्ज़त ने एक तरफ़ दुनियावी तख़्त-ओ-ताज से नवाज़ा तो दूसरी तरफ़ ताज-ए-विलायत अ’ता फ़रमा कर मंसब-ए- त्बियत और महबूबियत के मर्तबा पर जल्वा-फ़िगन किया और साथ-साथ ख़िताब-ए-जहाँ-गीरी से सरफ़राज़ फ़रमाया।

    इस तरह हज़रत मख़्दूम शाह मुबारक रहमतुल्लाह अ’लैह नस्ली ऐ’तबार से हुसैनी सादात हैं। आपने अपने बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम पर चलते हुए फ़क़ीरी लिबास इख़्तियार किया और हज़रत मख़्दूम सुल्तान अशरफ़ जहाँगीरी समनानी किछौछवी रहमतुल्लाह-अ’लैह के चिल्ला पर जल्वा-अफ़रोज़ रह कर बरसों इ’बादत-ओ-रियाज़त में मश्ग़ूल रहे। इधर-उधर सैर-ओ-सियाहत के बा’द सूबा-ए-बिहार के मोज़ा’ शैख़पुरा पंजूरा में क़ियाम फ़रमाया। आप बड़ी ख़ूबियों के मालिक थे।सरापा फ़ैज-ओ-बरकत थे।

    आपकी शादी बीबी ख़ास बिन्त-ए-शाह बुर्हानुल्लाह क़स्बा जौनपुर से हुई। आपको अल्लाह अ’ज़्ज़-ओ-जल्ल नें तीन रौशन सितारा इ’नायत फ़रमाया।

    फ़र्ज़न्द-ए-अव्वल हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश जो आपके ख़लीफ़ा और जानशीन हुए। दोउम हज़रत मज़हर फ़र्ज़न्द-ए-सेउम हज़रत बूढन। आख़िरुज़्ज़िक्र दोनों साहिब-ज़ादे आ’लम-ए-तुफ़ूलियत में ही विसाल फ़रमा गए।

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश बचपन से ही सैर-ओ-तफ़रीह के दिल- दादा थे। इसके अ’लावा फ़न्न-ए-कुश्ती से भी बे-हद शौक़ था, इसलिए आप बड़ी जाँबाज़ शख़्सियत के मालिक थे, जिसकी बुनियाद पर ही आप ने काफ़ी अ’र्सा तक फ़ौज में सिपह-सालारी के भी फ़राइज़ अंजाम दिए। दूसरे किसी इ’ल्म-ए-ज़ाहिर या बातिन की तरफ़ मुत्लक़ धयान नहीं देते। और ही आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने उसके लिए ताकीद फ़रमाई।

    लेकिन जब एक दिन नसीब ने रहबरी फ़रमाई और आपके क़दम-ए-मुबारक राह-ए-हक़ में बढ़ने के लिए मचल पड़े तो आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने फ़रमाया हमरे वज़ीफ़ा का बस्ता उठाओ हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश ने हुक्म के तहत वज़ीफ़ा का बस्ता उठाने की बे-हद कोशिश की लेकिन ख़ुदा जाने आज क्या हो गया था तमाम तर कोशिश और ज़ोर-आज़माई के बावजूद भी बस्ता उस मक़ाम से टल सका। इस दरमियान आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार मुतअ’द्दिद बार हुक्म फ़रमाते रहे।हज़रत मख़्दूम दरवेश बे-हद परेशान हुए। आपकी जबीन-ए-नियाज़ बाइ’स-ए-शर्मिंदगी ख़म हो गई। आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने फ़रमाया इतना छोटा-सा बस्ता तुम उठा सके और तुम्हारी क़ुव्वत जवाब दे गई जबकि तुम ने बड़े-बड़े पहलवानों को अखाड़े में मग़्लूब कर दिया है। आपके लबों को जुंबिश हुई, और इसरार किया कि मैं इस इ’ल्म के अखाड़े का पहलवान नहीं हूँ। मुझे इस की ता’लीम से नवाज़ें अब्बा जान। आपकी आख़ें अश्कबार थीं आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने फ़रमाया सब्र करो। लेकिन सब्र का दामन था कि छूटा जाता था। शौक़ था कि बढ़ता जाता था। इज़्तिराब था कि जो थमता था। आख़िर-कार एक शब जुम्आ’ को आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने दो बड़ा पान आपको इ’नायत फ़रमाया और कहा कि सुब्ह की नमाज़ के क़ब्ल दरिया के किनारे जाओ एक मज्ज़ूब मिलेंगे उनको सलाम कहना वो जवाब दें तो उनहें ये शय इ’नायत कर देना। वो बुज़ुर्ग खाएं या जो तुम को अ’ता करें उस से हरगिज़ इंकार करना।

    अपने वालिद-ए-बुज़ुर्गवार के मुताबिक़ आपने दरिया की जानिब रुख़ किया।मज्ज़ूब से सामना हुआ अ’लैक-सलैक हुई। आपने पान मज्ज़ूब की तरफ़ बढ़ाई जो किसी पस-ओ-पेश के मज्ज़ूब ने क़ुबूल कर लिया। मज्ज़ूब ने ख़ुद खाया और फ़रमाया मुंह खोलो और जब उन्हों ने मुंह खोला तो मज्ज़ूब ने कुछ भर दिया। हज़रत मख़्दूम दरवेश फ़रमाते हैं कि मुझे कुछ पता चल सका कि मेरे मुंह में जाने कौन सी शय उन्हों ने ड़ाल दी। उसके बा’द मज्ज़ूब ने कहा अपने वालिद से मेरा सलाम कहना और नज़रों से ग़ाइब हो गए।

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश इस क़दर मद-होश हुए कि कई दिनों तक खाने पीने का ख़याल जाता रहा। आप पर एक सुरूर की कैफ़ियत तारी हो गई थी। चंद दिनों के बा’द जब आप मा’मूल पर आए तो ज़िंदगी का मक़्सद ही बदल चुका था। जिस की बुनियाद पर ही आपने एक दूसरी दुनिया इख़्तियार कर ली।

    बना लेता है मौज-ए-ख़ून-ए-दिल से इक चमन अपना

    वो पाबंद-ए-क़फ़स जो क़तरा-ए-आज़ाद होता है

    ये था हालात-ए-ज़िंदगी का वो ख़ाका जहाँ से आपकी ज़िंदगी में एक अ’ज़ीम तब्दीली रूनुमा हुई, जिसमें उनके लिए अल्लाह तआ’ला की इ’बादत और रसूल-ए-करीम की इत्तिबा’-ओ-पैरवी के सिवा कुछ था।

    आप अपने वालिद-ए-बुज़ुर्गवार के महबूब-तर हो गए ग़र्ज़ कि इस तरह फ़ैज़ का दरिया जारी हुआ कि कोई भी ख़ाली गया।आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने फ़रमाया तुम जुनूब की जानिब जाओ चुनाँचे आपने हुक्म की ता’लीम की। और हस्ब-ए-हिदायत आ’ज़िम-ए-सफ़र हुए।कोई जगह नहीं भाई। तब सूबा बिहार के गया ज़िला’ शहर के क़रीब पहुँचे और यहाँ से तक़रीबन तीन मील शिमाल की जानिब मौज़ा’ बेथू शरीफ़ आकर रुके। ये वीराना और कूरदा जगह थी। मगरिब की जानिब एक बा-रसीदा बुज़ुर्ग हज़रत बा-यज़ीद शहीद के मज़ार के क़ुर्ब में क़ियाम फ़रमाया।

    चंद दिनों के बा’द आपकी आमद की धूम मच गई।एक नहीं हज़ार लाखों तक बातें पहुँची। लोग जौक़-दर-जौक़ परवाना-वार आपकी ज़ियारत के लिए टूट पड़े, जिसने सुना गिरवीदा हुआ। जो आया असीर हुआ। हज़ारों इंसान आपकी सोहबत और ता’लीम से फ़ैज़याब होने लगे। कितने राजा, महाराजों ने आपकी क़दम-बोसी का शरफ़ हासिल किया। और जो सरज़मीन सज्दों को तरस रही थी वहाँ आज ख़ूबसूरत और आ’ली-शान मस्जिद अर्बाब-ए-वफ़ा-ओ-साहिबान-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा के पुर-ख़ुलूस सज्दों से हमा वक़्त बा-रौनक़ रहती है ।ये सब आपके ही ए’जाज़-ओ-कश्फ़ का नतीजा था।

    हज़ारों औलिया-ए-कामिलिन की इस दुनिया की सरज़मीन पर तशरीफ़ आवरी हुई है और उनकी अ’मली ज़िंदगी से लाखों कारनामे रौशन हुए हैं। उसी तरह हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश अशरफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह की भी ज़िंदगी कश्फ़-ओ-करामात से आरास्ता नज़र आती है। आपकी ज़ात से हज़ारों कारनामे रौशन हुए। आपकी करामात की ख़बर कोसों फ़ैल गई। उसी ज़माना में पथोरा के राजा का बड़ा शान-ओ-दबदबा था। बद-क़िस्मती से उसकी इकलौती लड़की पागल हो गई।इ’लाज के लिए उसने कोई दक़ीक़ा रखा। काफ़ी इ’लाज-ओ-मु’आलिजा के बावजूद भी कोई फ़ाइदा नहीं पहुँचा। जबकि बड़े बड़े मु’आलिज-ए-वक़्त ने अपनी कोशिशें आज़माईं। दरबार में किसी ने हज़रत मख़्दूम दरवेश अशरफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह के कश्फ़-ओ-करामात का तज़्किरा किया।और कहा कि वो अपने ख़ुदा से जो भी दु’आ माँगते हैं वो क़ुबूल होती है। महाराजा का इश्तियाक़ बढा।वो हाथी पर सवार होकर आपके आस्ताना-ए-मुबारक की तरफ़ चल पड़ा। बेथू शरीफ़ में दाख़िल होकर निहायत ही अ’क़ीदत-ओ-इहतिराम के साथ आपकी ख़िदमत में क़दम-बोसी के लिए हाज़िर हुआ और आपनी फ़रियाद की। हज़रत मख़दूम शाह दरवेश अशरफ़ ने अल्लाह तआ’ला से दु’आ फ़रमाई। आपके फ़ैज़ से राजा की लड़की सेहतयाब हो गई। महाराजा बे-हद मसरूर-ओ-शादाँ हुआ और बहुत सारे हीरे-ओ-जवाहरात आपकी ख़िदमत में नज़्र करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। मगर आपने क़ुबूल नहीं फ़रमाया।आज तक कितने पागल दीवाने और जिन्न-ओ-बलिय्यता में मुब्तला मरीज़ आपके आस्ताना-ए-क़ुद्स में फ़ैज़याब हो रहे हैं।

    आपकी शोहतर बढ़ती गई। बेथू शरीफ़ में ज़माना-ए-क़दीम से कोलहा और सेवतार क़ौम आबाद थी। इस से क़ब्ल मघ क़ौम का मस्कन था।ये जगह बड़ी वीरान और कूरदा थी। काफ़ी ऊँचे ऊँचे ला-ता’दाद गढ़ थे। उस पर हज़रत मख़्दूम दरवेश ने फ़त्ह हासिल की और वहीं पर क़ियाम फ़रमाया। एक पुर-शकोह मस्जिद की बुनियाद रखी और हुज्रा-ओ-क़ियाम-गाह ता’मीर करने के बा’द अपने अहल-ओ-अ’याल के साथ सुकूनत इख़्तियार कर ली।

    हज़रत मख़्दूम दरवेश अशरफ़ के दस्त-ए-मुबारक पर लाखों बन्दगान-ए-ख़ुदा ने बैअ’त हासिल की और आपकी ख़िदमत में रह कर आपके फ़ुयूज़-ओ-बरकात की दौलत से सरफ़राज़ हुए। आपके दस्त-ए-मुबारक पर मौज़ा’ इब्राहीमपुर नोडीहा के हज़रत नाज़िम ने बै’अत फ़रमाई। और कुछ दिनों तक आपकी ख़िदमत का शरफ़ साहिल किया। उनकी कोशिश से ही हज़रत मख़दूम शाह दरवेश अशरफ़ के नाम मौज़ा’ बेथू शरीफ़ का हुक्म-ना ख़ानक़ाह वग़ैरा के अख़्राजात के लिए बादशाह-ए-वक़्त के दरबार से एक बड़ी जाइदाद की शक्ल में मिल गया चूँकि बादशाह-ए-वक़्त आप के कारनामों से बे-हद मुतअस्सिर था।

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश की शादी बीबी जान मलिक बिन्त-ए-शाह सुल्तान अ’ली उ’र्फ़ शाह बक़ा साकिन मनेर शरीफ़ ज़िला’ पटना से हुई। आपको अल्लाह अ’ज़्ज़-ओ-जल्ल ने तीन फ़र्ज़ंद और साहिब-ज़ादियाँ इ’नायत फ़रमाई। फ़र्ज़ंद-ए-अव्वल हज़रत मख़्दूम शाह मोहम्मद अशरफ़ दोउम हज़रत शाह फ़ैज़ुल्लाह अशरफ़ जो कम-सिनी में विसाल फ़रमा गए। फ़र्ज़ंद-ए-सेउम हज़रत शाह चाँद अशरफ़। फ़र्ज़ंद-ए-अव्वल हज़रत मख़दूम शाह मोहम्मद अशरफ़ आपके ख़लीफ़ा और जानशीन हुए जिनकी शादी बीबी हम्ज़ा बिंत-ए-सय्यद शाह सुलैमान साकिन महोली नज़्द-ए-अ’ज़ीमाबाद हुई और आपकी ही औलाद बेथू शरीफ़ में आबाद हैं।

    हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश अशरफ़ आख़िर उ’म्र तक याद-ए-इलाही में मसरूफ़ रहे और गुमराहों की हिदायत और दर्दमंदों की दस्त-गीरी और हाजत-मंदों की मुरादें पूरी कीं।

    आपकी हमागीर ज़ात-ओ-शख़्सियत जहाँ इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल का सर-चश्मा थी वहीं फ़ुयूज़-ओ-बरकात, रुश्द-ओ-हिदायत और ज़ुहूर-ए-करामत का मर्क़ज़-ओ-मसदर भी थी। हासिल करने वाले एक ही वक़्त में आपकी बारगाह से इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल का हिस्सा भी ले रहे थे और सुलूक-ओ-विलायत की मंज़िलें भी तय कर रहे थे हिन्दुस्तान के गोशे-गोशे से हर मज़हब-ओ-मिल्लत के लोग जौक़-दर-जौक़ आपकी ख़िदमत में हाज़िर होते और आपके फ़ैज़ान-ए-बे-पायाँ से अपनी रूही-ओ-क़ल्बी तिश्नगी बुझाते आपके दरबार में ना-मुराद आते और बा-मुराद लौटते। आप अपने दौर के चिश्तिया अशरफ़िया के सफ़-ए-अव्वल के बुज़ुर्ग थे।

    आख़िर-कार एक अ’ज़ीम ज़िंदगी का आख़िरी बाब ख़त्म हो गया। 10 शा’बान-उल-मु’अज़्ज़म सन 902 हिज्री को उसी सर-ज़मीन-ए-बेथू शरीफ़ पर आपके लबों को एक ख़फ़ीफ़-सी जुंबिश हुई और रूह क़फ़स-ए-’उन्सुरी से परवाज़ कर गई। इन्ना-लिल्लाहि-व-इन्ना इलैहि-राजि’ऊन। एक अ’हद-ए-मुसलसल का शीराज़ा बिखर गया एक हरकत-ए-मुसलसल हमेशा के लिए रुक गई। वो आफ़ताब-ए-शरीअ’त-ओ-तरीक़त ग़ुरूब हो गया जिसने ख़िलाफ़-ए-सुन्नत कोई क़दम नहीं उठाया बल्कि सुन्नत के ख़िलाफ़ चलने वालों को राह-ए-रास्त पर गामज़न फ़रमाया।

    मौत तज्दीद-ए-मज़ाक़-ए-ज़िंदगी का नाम है

    ख़्वाब के पर्दे में बे-ख़्वाबी का इक पैग़ाम है

    मुरीदीन-ओ-मो’तक़िदीन की दुनिया इस अंदोह-नाक ख़बर से सफ़-ए-मातम बिछ गई।लोग दीवाना-वार टूट पड़े और हज़ारों अ’क़ीदत-मंद उस वली-ए-कामिल और महबूब रहनुमा के आख़िरी दीदार के लिए हाज़िर हुए।

    आपका मद्फ़न सूबा-ए-बिहार के गया ज़िला’ में गया शहर से तक़रीबन तीन मील शिमाल की जानिब बेधू शरीफ़ में साहिल-ए-फलगू नदी पर है जिसको मशरिक़ से निकलते हुए सूरज की पहली किरन मुनव्वर करती है।

    आपके मर्क़द-ए-अनवर पर आपके सज्जादगान-ए-ख़ानक़ाह ने एक ख़ूबसूरत,आ’लीशान और पुर-शकोह ’इमारत ता’मीर कराई है जो आज भी अपनी रिफ़्अ’त-ओ-अ’ज़मत का सुबूत पेश कर रही है।

    आसमाँ तेरी लहद पे शबनम-अफ़्शानी करे

    ख़ुदा तआ’ला आपके मरक़द-ए-अतहर पर रहमत-ओ-नूर की बारिश फ़रमाए और ईमान-ओ-सुन्नत पर ख़ातिमा-बिल-ख़ैर करे आमीन।

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश अशरफ़ के अ’क़ीदत-मंदों में ज़ात-पात की कोई तफ़रीक़ नहीं है। ’अक़ीदत-मंदों, इरादत-मंदों और हाजत-मंदों का एक जम्म-ए-ग़फ़ीर है। हमा-वक़्त एक हुजूम रहता है।आपके ’अक़ीदत-मंद और दर्द-मंद दूर से आते हैं और फ़ैज़याब होते हैं। दूलहा दुलहन सलामी देने आते हैं हाजत-मंदों की मुरादें बर आती हैं। बीमार कसरत से शिफ़ा पाते हैं।

    आपका उ’र्स-ए-पाक 10 शा’बान-उल-मु’ज़्ज़म को निहायत ही जोश-ओ-अ’क़ीदत और तुज़्क-ओ-एहतिशाम के साथ पाबंदी से अंजाम पाता है जिसमें गोशे-गोशे से लोग सैलाब की तरह उमड पड़ते हैं। और आपके आस्ताना-ए-’आलिया से फ़ैज़ हासिल करते हैं।

    क़व्वालियाँ होती हैं, चादरें चढ़ाई जाती हैं, नज़्रें पेश की जाती हैं। और आपके ईसाल-ए-सवाब के लिए क़ुल-ओ-क़ुरआन-ख़्वानी का एहतिमाम किया जाता है।

    आपके मज़ार-ए-अक़्दस के बाहर चारों तरफ़ एक वसीअ’ क़ब्रिस्तान है जिसमें मुत’अद्दिद-ओ-’’अ’ज़ीम हस्तियाँ और सज्जादगान-ए- मख़्दूम शाह दरवेश मद्फ़ून हैं।

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश अशरफ़ का हुज्रा-ओ-चिल्ला-ए-मुबारक आपके मज़ार-ए-अक़्दस से थोड़े ही फ़ासला पर मग़रिब की जानिब आपकी ता’मीर कर्दा जामे’ मस्जिद से मुत्तसिल है और ज़ियारत-गाह-ए-ख़ल्क़ है। जहाँ आपने अपनी एक तवील ज़िंदगी बसर फ़रमाई और इ’बादत-ए-इलाही में आख़िरी उ’म्र तक मसरूफ़ रहे।

    आपके मज़ार-ए-मुबारक के क़रीब एक वसीअ’ समाअ’-ख़ाना है जहाँ से पैमाना-ए-शरीअ’त में बादा-ए-मा’रिफ़त तक़सीम होता है।

    क़ितआ’

    चैन बन कर दिल-ए-बेचैन में रहना सीखो

    सब्र से सीना-ए-हसनैन में रहना सीखो

    नूर वो जिस से दो-’आलम की जबीं हो रौशन

    हम से पेशानी-ए-कौनेन में रहना सीखो

    (अख़्तर बेथवी)

    सिलसिला-ए-नसब

    हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश अशरफ़ से सय्यद-उल-कौनेन फ़ख़्र-ए-दारैन सरवर-ए-’आलम नूर-ए-मुजस्सम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम

    पिदरी नसब-नामाः

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश बिन मख़्दूम शाह मुबारक बिन मख़्दूम अबू स’ईदी जा’फ़र ’उर्फ़ लाडगटा नवाज़ बिन हज़रत हुसैन क़त्ताल चिश्ती बिन मख़्दूम शाह अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ नूर-उल-ऐ’न बिन हज़रत शाह हुसैन जीलानी बिन हुसैन शरीफ़ बिन मूसा शरीफ़ बिन अबू ’अली शरीफ़ बिन मोहम्मद शरीफ़ हुसैन शरीफ़ बिन अहमद शरीफ़ बिन सय्य्द नसीरुद्दीन बिन अबी सालेह नस्र बिन अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ जीलानी बिन हज़रत अ’ब्दुल क़ादिर जीलानी बिन अबी सालेह जीलानी बिन मोमिन जंगी दोस्त बिन हज़रत अ’ब्दुल्लाह बिन सय्यद मोहम्मद मोरिस बिन सय्यद दाऊद बिन यहया ज़ाहिद बिन मूसा बिन सय्यद अ’ब्दुल्लाह सानी बिन सय्यद अबू मूसा अल-बहून सब्ज़-रंग बिन अ’ब्दुल्लाह अल-महज़ बिन इमाम अ’ब्दुल्लाह मुसन्ना बिन हज़रत इमाम हुसैन बिन हज़रत ’अली मुर्तज़ा रज़ी-अल्लाहु अ’लैहिम।

    चूँकि हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश के जद्द-ए-आ’ला क़ुद्वतुल-कुब्रा हज़रत मख़्दूम अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ नूरुल-ऐ’न हज़रत सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी के ख़ाला-ज़ाद बहन के साहिबज़ादा थे लेकिन बचपन ही से आपके जिलौ में परवरिश पा कर फ़ैज़याब हुए थे। हज़रत सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी ने आपको फ़र्ज़ंद-ए-मा’नवी कहा और आपको नूर-उल-ऐ’न-ओ-क़ुद्वत-उल-ऐ’न कह कर पुकारा करते थे यहाँ तक कि उनहों ने फ़रमाया कि “नूर-उल-ऐ’न” की औलाद हमारी औलाद होगी ।बा’द विसाल हज़रत सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर समनानी रहमतुल्लाह अ’लैह के आप ही जानशीन और ख़लीफ़ा हुए। इस तरह हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश का सिलसिला-ए-नसब बिल-वास्ता सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी मौला-ए-काइनात हज़रत ’अली मुश्किल-कुशा तक इस तरह पहुँता है।

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश बिन मख़्दूम शाह मुबारक बिन मख़्दूम अबू स’ईद जा’फ़र ’उर्फ़ लाडगटा नवाज़ बिन हज़रत हुसैन क़त्ताल चिश्ती बिन मख़्दूम शाह अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ नूर-उल-ऐ’न हज़रत शाह सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर अशरफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह बिन हज़रत इब्राहीम शाह बिन हज़रत ’इमादुद्दीन बिन सय्यद निज़ामुद्दीन अ’ली शब्बीर बिन सय्यद ज़हीरुद्दीन अज़ औलाद-ए-ताजुद्दीन बहलोल बिन महमूद नूर बख़्शी बिन मीर सय्यद मेहंदी अक्मलुद्दीन मुबारिज़ बिन मीर सय्यद जमालुद्दीन बिन मीर सय्यद हुसैन सैफ़ बिन मीर सय्यद अबू हम्ज़ा अबू मीर सय्यद अबू मूसा अ’ली बिन मीर सय्यद इस्मा’ईल सानी बिन मीर अबुल-हसन बिन मीर सय्यद इस्मा’ईल आ’रज बिन हज़रत इमाम जा’फ़र बिन हज़रत इमाम बाक़र बिन हज़रत इमाम ज़ैनुल-आ’बिदीन बिन हज़रत इमाम हुसैन शहीद-ए-कर्बला बिन हज़रत ’अली कर्मल्लाहु वज्हहु

    मख़सूस ज़ियारत-गाहें– हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश अशरफ़

    सूबा-ए-बिहार के गया ज़िला’ में गया शहर से तक़रीबन तीन मील शिमाल गया जहानाबाद रोड पर साहिल-ए-फलगू नदी पर बेथू शरीफ़ नाम की बस्ती आबाद है जिसका तारीख़ी दौर तक़रीबन पाँच सौ साल क़ब्ल शुरु’ होता है जहाँ कोलहा और सीवतार क़ौम आबाद थी। इस से क़ब्ल मघ क़ौम का मसकन था ये जगह वीराना और कूरदा थी। ऊँचे-ऊँचे ला-ता’दाद गढ़ ।थे बस सिर्फ़ बुत-परस्ती के अ’लावा और कुछ था हर कान ख़ुदा के नाम और उस की हक़्क़ानियत से ना-आशना थे। उस बस्ती को बत्थरु के नाम से जाना जाता था। लेकिन जब एक वली-ए-कामिल, ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश की निगाह-ए-मुबारक ने इस सरज़मीन को अपनी तवज्जोहात का मरकज़ बनाया तो उस सरज़मीन का तारीक मुस्तक़्बिल रौशन और ताबनाक हो गया ये। सरज़मीन आफ़ताब-ए-विलायत-ओ-मा’रिफ़त से जगमगा उट्ठी और उसके ज़र्रों में उनकी मस्ती-भरी निगाह का तासीर से इ’श्क़ की वहदत पैदा हो गई।

    ये सरज़मीन बत्थरु के नाम से पहले बत्थेहू कहलाई और आज बीथो शरीफ़ के नाम से शोहरा-ए-आफ़ाक़ है।ये ज़मीन वीरान थी मगर आज इस सरज़मीन पर एक अ’ज़ीम ख़ानक़ाह की आ’ली-शान-ओ-पुर-शकोह ’इमारत अपनी बुलंदी-ओ-अ’ज़मत का सुबूत पेश कर ही है। और जो बिला-शुब्हा मय-ख़ाना–ए-इ’ल्म-ओ-मा’रिफ़त की हैसियत रखती है जो सरज़मीन सज्दों के लिए तरस रही थी आज उसी सरज़मीन पर एक नहीं बल्कि तीन-तीन मस्जिदें हमा-वक़्त साहिबान-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा के सज्दों से बा-रौनक़ रहती हैं। जो सरज़मीन इ’ल्म की रौशनी से महरूम थी उस सरज़मीन पर बे-शुमार उ’लमा-ए-दीन, ख़ुत्ताब-ए-वक़्त और वली-ए-कामिल बन कर उभरे और अपनी ज़ात-ए-मुक़द्दस से उ’लूम-ओ-फ़ुनून और रुश्द-ओ-हिदायत का एक ऐसा मीनारा क़ाइम किया जिसकी रौशनी हिंदुस्तान के गोश-गोश में फैली जिस की रौशनी से हज़ारों लाखों तारीक-दिल रौशन हो गए।

    दरगाह शरीफ़

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश साहिल-ए-फलगू नदी पर बस्ती से मशरिक़ में वाक़े’ है जिसकी ’इमारत निहायत ही आ’ली-शान और ज़ेब-ए-नज़र है। इसके इहाता में मज़ार-ए-पुर-अनवार हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश, मस्जिद दरगाह शरीफ़, कटरा-मुक़द्दस, समाअ’-ख़ाना, लंगर-ख़ाना, ग़ुस्ल-ख़ाना, वज़ू-ख़ाना वग़ैरा-वग़ैरा हैं जो हमा वक़्त ज़ाइरीन और अ’क़ीदत-मंदों की ख़िदमत के लिए अपने हाथ फैलाए रहते हैं।

    ख़ानक़ाह का निज़ाम-ओ-दीगर अख़्राजात दरगाह शरीफ़ में वक़्फ़ शुदा मौरूसी-ए-जाईदाद की आमदनी से मौजूद सज्जादा-नशीन ब-हुस्न-ओ-ख़ूबी अंजाम देते हैं।

    मज़ार-ए-पुर-अनवार

    हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश का मज़ार-ए-पुर-अनवार साहिल-ए-फलगू नदी पर दरगाह शरीफ़ पुख़्ता इहाता में आरास्ता-ओ-पैरास्ता है जिस के क़ुर्ब में ही आपकी अहलिया का मज़ार है।आप दोनों के मज़ार-ए-अक़्दस पर एक निहायत ही हसीन ‘इमारत है जिसे आपके सज्जादगान ने ता’मीर की है जिस के गुंबद और मीनार अपनी रिफ़्अ’त-ओ-’अज़मत का सुबूत पेश कर रहे हैं। और मशरिक़ से निकलते हुए आफ़ताब की किरनों को ख़ुश-आमदीद कहते हैं।

    दरगाह शरीफ़ के इहाता में ही आपके अहल-ए-ख़ानदान के मज़ारात-ए-मुतह्हरात हैं जिनमें सज्जादगान-ए- हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश इस्तिराहत फ़रमा रहे हैं। और अपनी ज़ात-ए-मुक़द्दस से फ़ुयूज़-ओ-हसनात का चश्मा बने हुए हैं।

    दरगाह शरीफ़ के अंदर मज़ार-ए-पुर-अनवार के सामने हाजत-मंदान-ओ-मुराद-मंदान पाबंदी से दिन में तीन मर्तबा अ’क़ीदत-ओ-एहतिराम से हाज़री देते हैं। और घंटों बारगाह-ए-दरवेश में अपनी जबीन-ए-नियाज़ झुका कर अपनी अ’र्ज़दाश्त पेश करते हैं। और अल्लाह ’अज़्ज़-ओ-जल्ल से अपने हक़ में दु’आ-ए-ख़ैर फ़रमाने के लिए इल्तिजा पेश करते हैं।

    समाअ’-ख़ाना

    आपकी दरगाह शरीफ़ से मुत्तसिल एक वसीअ’ और आ’ली-शान समाअ’-ख़ाना है जिसमें ’उर्स-ए-मुबारक के मौक़ा’ पर महफ़िल-ए-समाअ’ का एहतिमाम होता है जहाँ से पैमाना-ए-शरीअ’त में बादा-ए-मा’रिफ़त तक़्सीम होता है। जिन में हज़ारों बंदगान-ए-ख़ुदा-ओ-जाँ-निसारान-ए-दरवेश शोहरत का शरफ़ हासिल करते हैं।

    मुसाफ़िर-ख़ाना

    दरगाह शरीफ़ के क़ुर्ब-ओ-नवाह में बड़े-बड़े पुख़्ता कमरों पर मुश्तमिल कई मुसाफ़िर-ख़ाना है जिसमें सैंकड़ों मुसाफ़िर और हाजत-मंद अपने शब-ओ-रोज़ गुज़ारते हैं।

    लंगर-ख़ाना

    दरगाह शरीफ़ से थोड़े फ़ासले पर ही एक पुख़्ता और आ’ली-शान वसीअ’ लंगर-ख़ाना है जहाँ दरगाह शरीफ़ पर आए हुए मुसाफ़िरों के लिए तीन दिनों तक त’आम का बंद-ओ-बस्त किया जाता है। इसके अ’लावा सालाना ’उर्स-ए-मुबारक पर लगातार 10 ता 12 शा’बान-उल-मु’अज़्ज़म ज़ाइरीन-ए-दरगाह शरीफ़ के दरमियान लंगर और तबर्रुकात तक़्सीम होते हैं। इसके अ’लावा सज्जादगान-ए- मख़्दूम शाह दरवेश पर दीगर तबर्रुकात से भी लोगों को नवाज़ा जाता है।

    हुज्रा-ओ-चिल्ला-ए-मुबारक हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश रहमतुल्लाह अ’लैह

    दरगाह शरीफ़ से चंद फ़रलाँग पर ही मग़रिब की जानिब हुज्रा-ओ-चिल्ला है। हुज्रा कुछ ख़ाम और कुछ पुख़्ता हैं। इस हुज्रा में आपने अपनी तमाम ज़िंदगी ’इबात-ए-इलाही में बसर फ़रमाई। एक मुसल्ला है जो सियाह पत्थर का है जिस पर आप नमाज़ अदा फ़रमाते थे। और आपकी जबीन-ए-नियाज़ ता-वक़्त-ए-विसाल उस मुसल्ला पर सज्दा-ए-ख़ुदावंदी से अलग नहीं रही। आज ये ज़ियारत-गाह-ए-ख़ल्क़ है जहाँ ज़ाइरीन का बराबर हुजूम रहता है और नमाज़-ए-नवाफ़िल अदा करते हैं।

    जामे’ मस्जिद

    हज़रत मख़दूम शाह दरवेश के हुज्रा-ए-मुबारक के क़रीब में जुनूब की तरफ़ आपके दस्त-ए-मुबारक से ता’मीर कर्दा एक आ’ली-शान-ओ-दीदा-ज़ेब वसीअ’ मस्जिद है जो ज़मीन से तक़रीबन 20 फ़िट की बुलंदी पर है जिसके मीनारे अपनी रिफ़्’अत-ओ-’अज़मत का सुबूत देते हैं। मस्जिद खुली फ़ज़ा में इतनी हसीन-ओ-दिल-कश मा’लूम होती है जिसकी मिसाल ख़ुद आप है जहाँ शम्अ-ए’-तौहीद के परवाने पंजगाना नमाज़ के अ’लावा नमाज़-ए-जुमा’ की अदाइगी का शरफ़ हासिल करते हैं जिस से मस्जिद हमेशा बा-रौनक़ रहती है।

    मुबारकपुर ’उर्फ़ गन्नू बीघा-

    दरगाह शरीफ़ से शिमाल की जानिब तक़रीबन एक किलोमीटर की दूरी पर मुबारकपुर ’उर्फ़ गन्नू बीघा नाम की एक क़दीम बस्ती है जो ज़माना-ए-क़दीम में कई सज्जादगान-ए- मख़्दूम शाह दरवेश का मस्कन रही है जहाँ बड़ी-बड़ी जलीलुल-क़द्र बुज़ुर्ग हस्तियों ने अपनी ज़िंदगी से फ़ुयूज़-ओ-बरकात के चश्मे जारी कर के एक आ’लम से दूसरे आ’लम में सफ़र फ़रमाया बिल-ख़ुसूस हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह मुबारक अशरफ़ का मज़ार-ए-पुर-अनवार जहाँ से हर लम्हा फ़ुयूज़-ओ-हसनात के सर-चश्मे जारी-ओ-सारी हैं। और इ’बादत-गाह-ए-ख़लाइक़ है।

    इमली दरगाह नज़्द-ए-डुमरी मौज़ा’ रसूलपुर

    मुबारकपुर दरगाह से ही चंद फ़रलाँग शिमाल की जानिब निहायत ही पुर-सुकून और दिल-कश फ़ज़ा में इमली दरगाह वाक़े’ है और जिसे क़ुर्ब-ओ-जवानिब में बे-इंतिहा शोहरत हासिल है जहाँ मुतअ’द्दिद बुज़ुर्ग हस्तियाँ मद्फ़ून हैं। और वहाँ पर कई सज्जादगान-ए- मख़्दूम शाह दरवेश के मज़ारात-ए-मुतह्हरात हैं। बिल-ख़ुसूस हज़रत मख़्दूम शाह ग़ुलाम मुस्तफ़ा अशरफ़ी, हज़रत शाह ग़ुलाम रसूल अशरफ़ी हज़रत मौलाना शाह नवाज़िश रसूल अशरफ़ी और हज़रत शाह उ’म्र-दराज़ अशरफ़ी के मज़ारात हैं जो ज़ियारत-गाह-ए-ख़लाइक़ हैं। और हज़ारों ’अक़ीदत-मंदों-ओ-मुरादमंदों के लिए फ़ुयूज़-ओ-बरकात का बे-पायाँ समुंदर अपने दामन में लिए हैं। जिस से हज़ारों तिश्ना-काम अपनी तिश्नगी-ए-क़ल्ब बुझाते हैं। बराबर अ’क़ीदत-मंदों-ओ-मुराद-मंदों का एक हुजूम रहता है हज़ारों तारीक-दिल रौशन-ओ-मुनव्वर होते हैं।

    कटरा-ए-मुक़द्दस

    दरगाह शरीफ़ के इहाता के खुले सहन में दो छोटे-बड़े सियाह पत्थर के कटरा हैं जिस पर आयत-ए-करीमा नक़्श हैं उस कटरा-ए-मुक़द्दस से जिन्न-ओ-बलिय्यात में मुब्तला मरीज़ शिफ़ा पाते हैं और उनके जिन उन में ख़ाकिस्तर होते हैं।

    मस्जिद दरगाह शरीफ़

    दरगाह शरीफ़ के इहाता में एक वसीअ’ मस्जिद है जिसके दर-ओ-दीवार आयत-ए-करीमा से मुनक़्क़श हैं, और जो साहिबान-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा के सज्दों से हमा-वक़्त जगमगाती रहती है।

    तबर्रुकात-ए- हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश अशरफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह

    हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश अशरफ़ के गिराँ-क़द्र मुतबर्रक तबर्रुकात आज तक ख़ानक़ाह शरीफ़ में मौजूद-ओ-महफ़ूज़ हैं। जिन में बिल-ख़ुसूस कुलाह शरीफ़ ’अमामा, बधी, ख़िर्क़ा-ए-मुबारक मख़्दूम शाह दरवेश के हैं।

    तस्बीह-ए-मुबारक हज़रत कर्मल्लाहु वज्हहु की है एक कुलाह हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह हाफ़िज़ अशरफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह की है। एक अंगरखा हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह मुहम्मद अशरफ़ शाह चाँद अशरफ़ का है इन तमाम तबर्रुकात के अ’लावा सज्जादगान-ए- मख़्दूम शाह दरवेश के भी तबर्रुकात हैं। जिन्हें निहायत अ’क़ीदत-ओ-एहतिराम के साथ सालाना ’उर्स-ए-मुबारक पर ब-वक़्त-ए-ख़िर्क़ा-पोशी सज्जादा-नशीन ज़ेब-तन फ़रमाते हैं। और नमाज़-ए-नवाफ़िल की अदाइगी के लिए मस्जिद दरगाह शरीफ़ तशरीफ़ ले जाते हैं। जिसकी ज़ियारत के लिए ’अक़ीदत-मंदान-ओ-मुश्ताक़ान का एक सैलाब उमड़ पड़ता है जिसे क़ाबू में करना निहायत ही मुश्किल होता है।

    चराग़-ए-मुक़द्दस

    एक मुक़द्दस चराग़ हज़रत मख़्दूम सुल्तान अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी रहमतुल्लाह अ’लैह का अ’ता-कर्दा है वो आज तक दरगाह शरीफ़ में महफ़ूज़ है और शम्अ’-दान में पाबंदी के साथ रोज़ाना रौशन होता है जिसकी रौशनी से हज़ारों तारीक दिल मुनव्वर होते हैं।

    तफ़्सील-ए-प्रोग्राम-ए-सालानाः-

    ’उर्स हज़रत मख़्दूम सय्यद शाह दरवेश अशरफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह

    आपकी दरगाह पर हमा-वक़्त हाजत-मंदों, मुराद-मंदों का एक जम्म-ए-ग़फ़ीर रहता है लेकिन सालाना ’उर्स से क़ब्ल माह-ए-रजब से हिंदुस्तान के गोशे-गोशे से ज़ाइरीन-ओ-हाजत-मंदों की आमद शुरु’ हो जाती है उनमें जिन्न-ओ-बलिय्यात में मुब्तला और दिमाग़ी तवाज़ुन खोए मरीज़ों की कसरत रहती है।

    सालाना ’उर्स-ए-मुबारक हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश अपने रिवायती-अंदाज़ में निहायत ही तुज़्क-ओ-एहतिशाम और ’अक़ीदत-ओ-एहतिराम के साथ मुंअ’क़िद होता है जिसमें गोशे-गोशे से लाखों ज़ाइरीन आस्ताना-ए-’आलिया अशरफ़िया पर तशरीफ़ लाकर फ़ैज़ान-ए-दरवेशी से बहरा-वर होते हैं।

    ’उर्स-ए-मोबारक का सिलसिला 10 शा’बान-उल-मुअ’ज़्ज़म 30 तारीख़ के हिसाब से मुंअ’क़िद होता है जिसकी तफ़्सील मुंदर्जा-ज़ैल है।

    10 शा’बानः- बा’द नमाज़-ए-फ़ज्र, ग़ुस्ल-ए-मज़ार-ए-पाक और संदल-पाशी-ओ-गुल-पाशी।

    बा’द नमाज़-ए-ज़ुहर क़ुरान-ख़्वानी ब-ईसाल-ए-सवाब हज़रत मख़्दूम शाह दरवेश रहमतुल्लाह अ’लैह।

    बा’द नमाज़-ए-इ’शा ब-वक़्त-ए-10 बजे शब ख़िर्क़ा-पोशी, क़ुल-ओ-रस्म-ए-चादर-पोशी।

    बा’द रस्म-ए-चादर-पोशी महफ़िल-ए-समाअ’ ता-वक़्त-ए-सहर।

    11 शा’बानः- बा’द नमाज़-ए-फ़ज्र महफ़िल-ए-समाअ’

    बा’द नमाज़-ए-ज़ुहर महफ़िल-ए-समाअ’

    बा’द नमाज़-ए-अ’स्र क़ुल-ओ-फ़ातिहा।

    बा’द नमाज़-ए-मग़रिब चराग़ाँ

    बा’द नमाज़-ए-’इशा महफ़िल-ए-समाअ’

    12 शा’बानः- बा’द नमाज़-ए-फ़ज्र महफ़िल-ए-समाअ’

    बा’द नमाज़-ए-मग़रिब महफ़िल-ए-समाअ’

    बा’द नमाज़-ए-इ’शा क़ुल-ओ-फ़ातिहा-ख़्वानी-ओ-रस्म-ए-चादर-पाशी, सय्यद शाह मोहम्मद अशरफ़ ’उर्फ़ शाह चाँद अशरफ़

    बा’द क़ुल-ओ-रस्म-ए-चादर-पोशी महफ़िल-ए-समाअ’ ता-वक़्त-ए-सहर

    बा’द महफ़िल-ए-समाअ’ दुआ’-ए-इख़्तितामिया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : Anwar-e-Darwesh

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