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आलोचना- महाकवि बिहारीदास जी की जीवनी-मयाशंकर याज्ञिक

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

आलोचना- महाकवि बिहारीदास जी की जीवनी-मयाशंकर याज्ञिक

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    ब्रजभाषा-मर्मज्ञ साहित्य-सेवी बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर ने स्वरचित “बिहारी-रत्नाकर” नाम की एक बड़ी विद्वत्तापूर्ण टीका बिहारी-सतसई पर प्रकाशित की है। इस टीका की प्रशंसा बड़े बड़े विद्वानों ने की है। उसके विषय में विशेष लिखने की आवश्यकता ने की है। उसके विषय में विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। “बिहारी-रत्नाकर” के प्राक्कथन में सतसई की प्राचीन प्रतियों तथा उनके पाठ-भेद के विषय में रत्नाकर जी ने भली भाँति विवेचन किया है और बिहारी की जीवनी इत्यादि पृथक् भूमिका में प्रकाशित करने का वायदा किया है। इस ही वायदे के अनुसार रत्नाकर जी ने “काशी-नागरी-प्रचारिणी पत्रिका भाग 8 अंक 1 तथा 2” में बिहारी की जीवनी पर एक लेख प्रकाशित किया है। इस लेख में अब तक की उपलब्ध समग्र सामग्री पर अनुमानों को अवलंबित करके यह जीवनी लिखी गई है। इसमें पाठकों से अनुरोध किया गया है कि बिहारी के संबंध में उनको कोई और वृत्तांत विदित हो तो वे सूचित करें, जिससे “बिहारी-रत्नाकर” की भूमिका में उन बातों पर भी विचार किया जा सके। रत्नाकर जी की इस आज्ञा के अनुसार हम कुछ बातें उपस्थित करते हैं। आशा है कि रत्नाकर जी इन पर विचार करेंगे।

    1- स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास जी ने कोई 30 वर्ष पूर्व “कविवर बिहारीलाल” नाम की एक छोटी सी पुस्तक लिखी, जिसको काशी-नागरीप्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया था। इस पुस्तक में उक्त बाबू साहब ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि बिहारी के पिता महाकवि केशवदास थे।

    अपने लेख में रत्नाकर जी ने इस विषय पर विचार किया है और छः-सात पृष्ठों में इस अनुमान की पोषक और विरुद्ध उक्तियाँ दी हैं। रत्नाकर जी अंत में लिखते हैं-

    “ऊपर जो बातें लिखी गई हैं, उनसे सुप्रसिद्ध कवि केशवदास जी ही को बिहारी का पिता मानना संगत प्रतीत होता है, पर इस समय विद्वन्मंडली की धारणा इसके विरुद्ध है। अतः जब तक इस बात के और कुछ पुष्ट प्रमाण हाथ आवे, तब तक हम भी बिहारी के पिता अन्य ही केशव मानकर यह जीवनी लिखते हैं।”

    हमारे विचार से कुछ बातें ऐसी हैं जो महाकवि केशवदास और बिहारी के पिता-पुत्र संबंध की संभावना के बिलकुल विरुद्ध हैं-

    1- केशवदास सनाढय थे, बिहारी चैबे थे। इन दोनों में पिता-पुत्र का संबंध कैसे हो सकता है? इस वैषम्य का रत्नाकर जी ने यह कहकर दूर किया है कि एक प्रकार के चौबे सनाढय चौबे भी कहलाते हैं परंतु बिहारी के वंशज तो चौबे सनाढय है, सनाढय चौबे हैं। वे तो शुद्ध कुलीन चौबे हैं। बिहारी के वंशज बालकृष्ण जी के पुत्र गोपालकृष्ण चौबे को हम जानते हैं, वे भरतपुर राज्यांतर्गत दीग स्थान में वकालत करते हैं। उनके विवाहादि सब संबंध, मैनपुरी, इटावा आदि स्थानों में जो चौबे मिलते हैं उन्हीं में होते हैं। यदि बिहारी सनढय चौबे होते तो उनके वंशजों के विवाह संबंध सनाढय ब्राह्मणों में होते, चौबों में होते। बिहारी के भानजे कुलपति मिश्र के वंशज भी शुद्ध कुलीन चौबे हैं, सनाढय चौबे अथवा चौबे सनाढय नहीं हैं। इसलिये जाति संबंधी वैषम्य केशवदास को सनाढय चौबे मानने से दूर नहीं होता।

    2- केशव और बिहारी के पिता-पुत्र के संबंध के विरुद्ध एक बात और भी है, नहीं मालूम रत्नाकर जी का ध्यान उस ओर क्यों नहीं गया। यदि बिहारी केशवदास के पुत्र थे, तो वे कुलपति मिश्र के मामा तभी हो सकते हैं जब केशवदास जी की कन्या का विवाह कुलपति मिश्र के पिता परशुराम जी के साथ हुआ हो। केशवदास जी मिश्र थे और परशुराम जी भी मिश्र थे। मिश्र की कन्या का विवाह मिश्र के साथ नहीं हो सकता। इसलिये बिहारी के पिता महाकवि केशवदास जी को मानना संभव नहीं है।

    3- बिहारी के पिता का नाम केवल केशव अथवा केशव राय नहीं था, बल्कि हमारे विचार से उनका नाम केसौ केसौ राय था। इस विषय पर एक लेख हमने माधुरी में प्रकाशित भी किया था। कदाचित् वह लेख रत्नाकर जी के दृष्टिगोचर नहीं हुआ। उस लेख की मुख्य मुख्य बातें विचारार्ण उपस्थित करते हैं-

    (अ) बिहारी का एक दोहा है-

    प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।

    मेरे हरो कलेस सब, केसौ केसौ राइ।।

    इस दोहे की टीका में कुछ टीकाकारों ने लिखा है कि बिहारी के पिता का नाम केसौ था, परंतु इसमें कुछ मतभेद है। (1) कोई टीकाकार तो प्रथम शब्द केसौ को बिहारी के पिता का नाम बताते हैं और दूसरे शब्द केसौ राय को भगवान् श्रीकृष्ण के लिये उपयोग किया गया कहते हैं। (2) कुछ टीकाकार इसके विरुद्ध दूसरा शब्द केसौ राय बिहारी के पिता का नाम मानते हैं। बिहारी के सब से प्रथम टीकाकार कृष्णलाल का मत प्रथम पक्ष में है, रत्नाकर जी दूसरा पक्ष मानते हैं।

    (व) कुलपति मिश्र ने अपने संग्रामसार ग्रंथ में अपना वंश वर्णन करते हुए अपने पितामह का भी वर्णन किया है-

    “कविवर मातामहि सुमिरि, केसौ केसौ राइ।

    कहौं कथा भारत्थ की, भाषा छंद बनाइ।।”

    विचारने की बात यह है कि बिहारी ने तो अपने उपरोक्त दोहे में दो शब्द केसौ तथा केसौ राइ का इसलिये उपयोग किया है कि उनको रूपक तथा श्लेष से, अपने पिता और भगावन् कृष्णचंद्र का वर्णन करना था,परंतु कुलपति मिश्र को क्या आवश्यकता थी कि उनके मातामह का नाम केवल केसौ राइ होने पर भी, एक शब्द केसौ और जोड़कर केसौ केसौ राइ लिखा है। कुलपति मिश्र के केसौ और केसौ राइ लिखने से ज्ञात होता है कि उनके मातामह का नाम केसौ केसौ राइ ही था, केवल केसौ अथवा केसौ राइ नहीं था। कुलपति मिश्र बिहारी के भानजे थे, इसलिये बिहारी के पिता का नाम केसौ केसौ राइ ही था।

    (3) रत्नाकर जी का अनुमान है कि कुलपति मिश्र ने उपरोक्त दोहे में महाकवि केशवदास जी का ही स्मरण किया है, क्योंकि उस समय केशवदास जी को छोड़कर कोई अन्य कवि केशव नाम का नहीं था। हमारा कहना है कि उस समय में केसौ-केसौ राइ नाम के कवि ही विद्यमान थे। केवल केसौ अथवा केसौ राइ के ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। केसौ केसौ राइ नाम के कवि ही मौजूद थे। रत्नाकर जी ने नवीन कवि का प्रबोध-रस-सुधासर नामक ग्रंथ देखा है। कोई 30 वर्ष हुए तब उन्होंने स्वयं इस ग्रंथ के कुछ भाग को सुधासर नाम से प्रकाशित किया था। नवीन ने इस ग्रंथ में “केसौ केसौ राइ” के छंद उद्धृत किए हैं। हमारे देखने में इस कवि के छंद अन्यत्र भी आए हैं। दो छंद उदाहरण में नीचे देते हैं-

    कवित्त केसौ केसौ राइ कौ-

    ननद निगोड़ी कनसूआ कौरे लागी रहै,

    सासु सुनिहै तौ नाह नाहर सौ करिहै।

    केसौ केसौ राइ जना जन सुनै जी कौ ज्यान,

    तुम तौ निडर परवस सो तौ डरिहै।।

    फैलि जैहे अब ही चवाव बृजबासिन में,

    कहत सुनत कौन काकी जीभ धरिहै।

    कह्यौ चाह्यौ सो तौ तुम मोही सों बुलाइ कहौ,

    आन कान परे ते लाखन कान परिहै।।

    नायिका की उक्ति सखी के प्रति अथवा रतिप्रीता की उक्ति सखी के प्रति। कवित्त केसौ केसौ राइ कौ-

    कोक कूक वोही करौ कोकनद फूल्यौ जिन,

    सौएँ गुरु जन गौएँ प्रेम रस चाखिए।

    सोइए जागिए री हिय सौ लगाइए पै,

    हिय कौं हुलास आली काहू सौं भाखिए।

    केसौ केसौ राइ सों वियोग पलहू होइ,

    जीवन अवध गुन प्रेम अभिलाखिए।

    कछुक उपाय कीजै ऊगन भान दीजै,

    दिन दाव दूव लीजै रातैं करि राखिए।।

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