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अबुलफजल का वध- श्री चंद्रबली पांडे

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    वीर और विवेकी अल्लामा अबुलफजल के वध के विषय में इतिहासों में जो कुछ पढ़ा वह गले के नीचे उतरा, पर उसे सत्य के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो था। इसी उलझन में था कि महाकवि केशवदास का वीरसिंहदेवचरित हाथ लगा। बडे चाव से पढ़ा। सोचा स्यात् कहीं से कुछ और हाथ लगे और अल्लामा अबुलफजल का अंत कुछ और खुलकर समाने आए। आया, पर विश्वास करने का साहस हुआ। इतिहास के सामने काव्य को कौन खरा समझेगा। सो भी हिंदी काव्य को। निदान फिर पढ़ा और फिर पढ़ा, और तब तक इस पढ़ने का पीछा करता रहा जब तक कवि का प्रमान प्रमाण रूप में सामने सका। केशव ने लिखा-

    नव-रस-मय सब धर्म मय, राजनीति-भय मान।

    वीरचरित्र विचित्र किय, केशवदास प्रमान।।

    केशवदास की इस विचित्रता पर विचार करने का अवसर नहीं। यह तो कभी काव्य के अवसर पर किया जायगा। यहाँ तो केवल उसके प्रमान पर ही थोड़ा विचार करना है और सो भी अल्लामा अबुलफजल के वध के विषय में। प्रकट ही है कि कवि केशवदास की वाणी को कोई इस कारण प्रमाण नहीं मान सकता कि वह वधिक वीरसिंह के दरबारी कवि है। पर इसे भूलना होगा कि यह दरबारी कवि दरबार पर कभी उतना आश्रित था जितना उसका प्रसिद्ध पतादाता असदवेग। असदबेग ने जो कुछ उक्त अल्लामा के निधन के विषय में लिखा है वह प्रमाण केवल इसीलिए माना जाता है कि अभी तक उसकी तोड़ का कोई दूसरा ब्योरा सामने नहीं आया। जहाँगीर का लेख अव्यापक और अधूरा है। उसमें प्रसंगवश इसका उल्लेख कर दिया गया है। वह कहता है-

    ‘बहादुरी भलमनसी और भोलेपन में अपने बराबर वालों से बढ़कर है। इसके बढ़ने का यह कारण हुआ कि मेरे पिता के पिछले समय में शैख अबुलफजल ने जो हिंदुस्तान के शैखों में बहुत पढ़ा हुआ और बुद्धिमान था स्वामिभक्त बनकर बड़े भारी मोल में अपने को मेरे बाप के हाथ बेच दिया था। उन्होंने उसको दक्षिण से बुलाया। वह मुझसे लाग रखता था और हमेशा ढके छिपे बहुत सी बातें बनाया करता था। उस समय मेरे पिता फसादी लोगों से मेरी चुगलियाँ सुनकर मुझसे नाराज थे। मैं जान गया था कि शैख के आने से यह नाराजी और बढ जावेगी जिससे मैं हमेशा के लिये अपने बाप से विमुख हो जाऊँगा। इस बरसिंहदेव का राज्य शैख के मार्ग में पड़ता था और यह उन दिनों बागी भी हो रहा था। इसलिये मैंने इसको कहला भेजा कि यदि तुम फसादी को राह में मार डालो तो मैं तुम्हारा बहुत कुछ उपकार करूँगा। राजा ने यह बात मान ली। शैख जब उशके देश में होकर निकला तो इसने मार्ग रोक लिया और थोड़ी सी लड़ाई में उसके साथियों को तितर बितर कर के शैख को मारा और उसका सिर इलाहाबाद में मेरे पास भेज दिया। इस बात से मेरे पिता नाराज तो हुए परंतु परिणाम यह हुआ कि मैं बेखटके उनके चरणों में चला गया और वह नाराजी धीरे धीरे दूर हो गई।’

    श्री मुंशी देवीप्रसाद जी ने जिसे बरसिहदेव पढ़ा है वह वास्तव में यही वीरसिहदेव है, जिसे भ्रमवश बहुत से लोगो ने नरसिंहदेव भी पढ़ा था। फारसी लिपि की दुरूहता के कारण ही ऐसा हुआ। फिर भी इतना तो प्रकट ही है कि जहॉगीर ने जो कुछ लिखा है वह इतिहास के रूप में नहीं लिखा है। यहॉ वह केवल अपने को बचाना और वीरसिह की सेवा को उगाना चाहता है। उसकी इसमें प्रशंसा अवश्य है कि उसने अपने अपराध की स्वीकार कर लिया, परंतु यदि वह ऐसा नहीं करता तो और करता क्या, यह तो जगविदित हो चुका था और सभी लोग उसको कुछ इससे अधिक दोषी समझते थे। विचार करने की बात है कि कहला देने भर से वीरसिह ऐसा साहस का काम करते और केवल उनके बागी हो जाने भर से जहाँगीर भी उनके पास ऐसा भीषण संदेश भेजने का साहस करता? कहीं वे फूट जाते तो? नहीं, निश्चय ही इसका रहस्य कुछ और है। और, यहॉ इतना और भी ध्यान रहे कि अभी वीरसिंहदेव राजा नहीं थे। ओड़छा का राज्य इस समय राजा रामशाह के हाथ में था, जिनकी ओर से उनके अनुज इंद्रजीतसिंह राज करते थे और वीरसिंहदेव अभी केवल जागीर भर भोगते थे, जिसको छोड़कर उन्हें भागना भी पड़ा था। केशव कहते हैं----

    यह सुनि बोल्यौ जादौ गौर, पहिलौ सौ अब नाहीं ठौर।

    फेरि अकब्बर के फरमान, कछवाहे सौ बैर निधान।

    इंद्रजीत सौं हती समीति, कछू दिननि तैं ऐसी रीति।

    कोई कैसोई हितु रचै, धातै पाइ राजा बचै।

    छोडौ सबै सुधर की आस, चलो सलैमसाहि के पास।

    घटि-बढ़ि अपनै करमहि लगी, उद्दिम सब की कीरति जगी।

    जानै कौन करम की गाथ, काहू कै ह्वै रहिए नाथ।

    सब ही कीनौ यहै विचार, चल्यौ प्रयागहि राजकुमार।

    कहना होगा कि यह राजकुमार वही वीरसिंहदेव है जिसको इतिहासकार इस अवस्था में भी राजा लिखते हैं। राजकुमार वीरसिंह अकबर का लोहा नहीं मानता था। वह तो उका विरोधी था। पर जब उसने देखा कि उसके भाई-बंधु भी उसके विरोध में है और उनसे पार पाने की शक्ति उसमें नहीं है तब वह अपने मित्रों के परामर्श से सलीम शाह से संधि करना चाहता है, क्योंकि वह भी उसी की भॉति उस समय अकबर का विरोधी था। उधर सलीम भी इसी चिंता में था। निदान----

    अहीछत्र किय कुँवर मिलान, मिल्यौ मुदफ्फरसैद सुजान।

    तासौ मतौ कुँवर सब कह्यौ, सुनि सुनि समुझि रीझि हिय रह्यो।

    कह्यौ सु तिहि सुनि अरि कुल हाल, चलियै तो चलियै इंहि काल।

    जौ लौ काहू कछू कियौ, उमग्यौ जाहि अरिकौ कियौ।

    जौ ह्यॉ ह्वै हैं कछू उपाउ, दियौ जैहे आगे पाँउ।

    घर के रहैं बिगरिहै काज, दुहूँ भाँति चलनौ है आज।

    मन क्रम बचन धरौ यह नेम, तुम सेवक प्रभु साहि सलेम।

    जहाँगीर ने यह नहीं लिखा कि किसके द्वारा उसने यह काम कराया पर कवि केशव का कहना है कि इस कार्य का सूत्रपात सैद मुदफ्फर खाँ के द्वारा हुआ। अच्छा तो यह मुदफ्फर खाँ है कौन और इसके लिये भी जहाँगीर कुछ करता है या नहीं? सो हमारी मति में तो यही आता है कि हो हो केशवदास का यह मुदफ्फर खॉ वही मुजफ्फर खॉ हो जिसके विषय में जहाँगीर ने स्वयं लिखा है----

    इसी दिन (21 गुरुवार, सावन बदी 5, सं. 1675 वि.) मुजफ्फर खाँ ने जो ठट्ठे की सूबेदारी पर नियत हुआ था चौखट चूम कर 100 मुहरें, एक हजार रुपए और एक लाख रुपए के जवाहिर और जड़ाऊ पदार्थ भेंट किये।

    आगे चलकर जहाँगीर ने उसकी और प्रतिष्ठा की और उसे खिलअत, हाथी तथा मनसब दिए, यह उसकी तुजुक से प्रकट ही है। रही आगे की बात सो केशव लिखते हैं-----

    सरीफखांयहि देखि सुख भयौ, छीर नीर ज्यौं मन मिलि गयौ।

    गुदरबौ जब तरीफ खां जाइ, हररव्यौ दिल दिल्ली कौ राइ।

    बोल हु बेगि कह्यौ सुलतान, मेरै बीरसिंह तन-त्रान।

    साहि-सभा जब गबौ नरिंदु, सूरज-मंडल मैं मनु इंदु।

    देखत सुख पायौ सुलतान, जौं तन पायौ अपनै प्रान।

    कै तसलीम गहे तब पाइ, उमग्यौ आनँद अंग माइ।

    सोम्यौ बीर देखि यौं साहि, जैसैं रहै सुमेरहि चाहि।

    वीरसिंह कौ बाढी सौह, पारस सौं परस्यौ ज्यौं लौह।

    परम सुगंध नीम है जाय, जैसैं मलयाचल कौ पाइ।

    कह्यौ साहि नीकै है राय, जब नीकैं जब देखै पाय।

    भली करी तै राजकुमार, छोडयौ सब आयौ दरबार।

    ह्वै है मनैं पूजिहै आस, जौ तू रहिहै मेरे पास।

    यह कहि पहिराए बहु बार, हाथी हय औरहु हथयार।

    भीतर गौ दिल्ली कौ नाथ, बहुर्यो खा सरीफ गहि हाथ।

    जब जब जाइ कुँवर दरबार, लै बहुरै अहिलाद अपार।

    केशवदास ने यहाँ शाह सलीम को जो ‘दिल्ली कौ नाथ’ कहा है इसका भी कुछ कारण है। बात यह है कि इस समय जहाँगीर इलाहाबाद के किले में बहुत कुछ स्वतंत्रता का अनुभव कर रहा था और अकबर के अधीन केवल इतना ही था कि उसे सम्राट् समझ लेता था। अकबर के समय में शाह और सुलतान का संकेत वह नहीं रह गया था जो उके पहले था। अब तो मुगल राजकुमार शाह और सुलतान कहलाते थे। केशव ने भी यहाँ यही किया है। केशव के इस कथन से यह भी प्रकट होता है कि किस प्रकार प्रतिदिन उनकी मैत्री बढ़ती गई और निदान सलीम ने मुँह खोलकर वीरसिंह से कह ही तो दिया---

    जितनौ कुच आलम परबीन, थावर जंगम दोई दीन।

    तामै एकै बैरी लेख, औवलफजल कहावै सेख।

    वह सालत है मेरे चित्त, काढ़ि सकै तौ काढ़हि मित्त।

    जितनै कुल उमरावनि जानि, ते सब करहिं हमारी कानि।

    आगै पीछै मन आपनै, वह मोहिं तिनका करि गनै।

    हजरति कौ मन मो हित भरयौ, याकै पारैं अंतर परयौ।

    सत्वर साहि बुलायौ राज, दक्षिन ते मेरे ही काज।

    हजरति सौं जौ मिलि है आनि, तौ तुम जानहु मेरी हानि।

    बेगि आउ तुम राजकुमार, बीचहि वासौं कीजौ रार।

    पकरि लेहु कै डारहु मारि, मेरौ हेत हियै निरधारि।

    होय काम यह तेरे हाथ, सब साहिबी तुम्हारे साथ।

    केशव ने अकबर के लिये जो हजरत का व्यवहार किया है उससे इतिहास खूब परिचित है, पर वह यह नहीं जानता कि सलीम ने खूब परखकर ही प्रयाग में शपथ लेने के बाद ही वीरसिंह से ऐसा कुछ कहा था और इस संधि का संयोजक था खाँ शरीफ अतवा शरीफ खाँ। सुनिए-

    सुख पायौ बैठे हते, एक समय सुलतान।

    खाँ सरीफ तिन बोलि लिय, विरसिंहदेव सुजान।

    विरसिंहदेव सुजान मान दै बात कही तब।

    या प्रयाग मै कुँवर सौह करिये मोसौं अब।।

    तोसौ करौं विचार करहि अपनै मनभायैं।

    अनत कबहूँ जाउ रहहु मो सँग सुख पायै।।

    बीरसिंह का विश्वास हो जाने पर उससे प्रयाग में शपथ लेकर सुलतान सलीम ने जो कुछ कहा वह ऊपर चुका है। अब वीरसिंह की सीख सुनिए। कहते है----

    वह गुलाम तूँ साहिब ईस, तासौ इतनी कीजहिं रीस।

    प्रभु सेवक की भूल विचारि, प्रभुता यहै सु लेइ सुह्मारि।

    सुनिजतु है हजरत कौ चित्त, मंत्री लोग कहत है मित।

    तौ लगि साहि करै जब रोष, कहियै यौ किहिं ही सौ प्रीति।

    जन की जुबती कैसी रीति, सब तजि साहिब ही सौ प्रीति।

    तातैं वाहि लागै दोष, छाड़ि रोष कीजै संतोष।

    किंतु सलीम के मन में जो बात बरसों से बस चुकी थी वह सहसा निकलनेवाली कब थी? फलतः हुआ यह कि-

    कसि तुरतहि बखतर तहि बेगि, लै बाँधी कटि अपनी तेग।

    घोरौ दै सिरपा पहिराय, कीनी विदा तुरत सुख पाय।

    दरीखानै तै राजकुमार, चलत भई यह सोभा सार।

    रविमंडल तैं आनंदकंद, निकसि चलौ जनु पूरनचंद।

    सैद मुजफ्फर लीनौ साथ, चलै जानै कोऊ गाथ।

    तात्पर्य यह कि केशव के प्रमाण पर यह सिद्ध नहीं होता कि जहाँगीर ने दूर से जो कहला दिया उसी पर वीरसिंह ऐसा साहस का काम करने निकल पड़े, नहीं, इसके लिये तो बहुत छानबीन हुई और इसमें सरीफ खाँ तथा सैद मुजफ्फर का विशेष हाथ रहा। मुजफ्फर के बारे में पहले कहा जा चुका है, अतः अब शरीफ खाँ की सुनिए। श्री देवीप्रसाद जी लिखते हैं---

    4 रज्जब अगहन सुदी 6 को शरीफ खा जो बादशाह के भरोसे का आदमी था और जिसको तुमने और तोग मिला हुआ था बिहार के सूबे से आकर उपस्थित हुआ। बादशाह ने प्रसन्न होकर उसको वकील और बड़े वजीर का उच्च पद अमीरुल-उमरा की पदवी और पाँछ हजार सवार का मनसब दिया। इसका बाप ख्वाजा अब्दुस्समद बहुच अच्छा चित्रकार था और हुमायूँ बादशाह के पास प्रतिष्ठापूर्वक रहता था जिससे अकबर बादशाह भी उसका बहुत मान रखता था।

    श्री देवीप्रसाद जी ने शरीफ खॉ का जो परिचय दिया है वह पूर्ण नहीं है। जहॉगीर ने तुजुक में इससे कहीं अधिक लिखा है। उसका कहना है कि मेरा शरीफ खाँ से ऐसा लगाव है कि मैं उसे भाई, पुत्र, मित्र और साथी समझता हूँ। क्यों हो? इसी साथ का पता तो कवि केशवदास देते हैं। केशवदास ने शरीफ खाँ के विषय में जो लिखा उसको सामने रखकर उसकी तुजुक के शरीफ खॉ को देखे तो आप ही सारा रहस्य खुल जाय और यह भी स्पष्ट हो जाय कि क्यों उस पर जहाँगीर की ऐसी कृपा है। स्मरण रहे, उसे खाँ की उपाधि यहीं से मिली थी और यहीं से मिली थी बिहार की सूबेदारी भी। बादशाह अकबर ने आपको समझाने के लिये सलीम के पास भेजा था परंतु आप प्रयाग पहुँचकर उके भेदिया हो गए और आपकी कृपा से ही अबुलफजल का वध हुआ। इतिहास की आँख से आप ओझल रहें पर हिंदी-काव्य आपको कैसे छोड़ सकता है? बाबा केशव ने कैसा परिचय दिया!

    वीरसिंहदेव ने अबुलफजल की टोह में किया यह-

    पठए चर नीके नर नाथ, आवत चले सेख के साथ।

    चारन कही कुँवर सो आय, आए नरवर सेख मिलाय।

    यह कहि सुनि भए सैंध के पार, पल पल लखै सेख की सार।

    आए सेख मीच के लिए, पुर पराइछे डेरा किए।

    औबलिफजलि बड़े ही भोर, चले कूँच कै अपनै जोर।

    आगै दीनी रसधि चलाइ, पीछै आपुन चले बजाइ।

    वीरसिह दौरे अरि लेखि, ज्यों हरि मत्त गयंदनि पेखि।

    सलीम के आदेशानुसार वीरसिंह ने किया क्या, इसका पता तो हो गया। चर भेजा और उनसे सूचना पाते ही सिध पार कर सहसा अबुल फजल पर धावा बोल दिया। शेख ने इस पर जो कुछ किया वह यह है---

    सुनतहि वीरसिंह कौ नाउ, फिरि ठाढ़ौ भयो सेख सुभाउ।

    परम रोख सौं सेख बखानि, जैसे असुर नृसिहहि जानि।

    दौरत सेख जानि बड़ भाग, एक पठान गही तब बाग।

    अबुलफजल का यह साहस उनके साथी पठान को अच्छा लगा। वह चाहता था कि इस अवसर पर किसी प्रकार शेख निकल भागे और फिर इसका बदला सलीम से लें, पर उसकी यह बात उनको रुची। उन्होंने सच्चे वीर की भॉति कहा-

    कहि धौ अब कैसे भग जाउँ, जूझत सुभट ठाउँ ही ठाउँ।

    आनि लियौ उनि आलम तोगु, भाजै लाज मरैगौ लोगु।

    पठान ने बहुत कुछ समझाया पर शेख़ ने उसकी एक सुनी और अंत में-

    तूँ जु कहत बलि जेजै भाजि, उठे चहूँ दिसि बैरी गाजि।

    भाजै जात मरन जौ होय, मोसौ कहा कहै सब कोय।

    जौ भजिजै लरिजै गुन देखि, दुहूँ, भाँति मरिबोई लेखि।

    भाजौ जौ तौ भाज्यौ जाइ, क्यौ करि दैहे मोहि भजाइ।

    पति की बेरी पाइ निहार, सिर पर साहि मया कौ भार।

    लाज रही अँग अँग लपटाइ, कहि कैसो कै भाजौ जाइ।

    भला बेचारा पठान इसका उत्तर क्या देता? अबुलफजल सा न्यायी किसी के सामने कब झुका? अल्लामा ने झट देख लिया कि बैरी के हाथ से निकल भागना संभव नहीं। निदान वीरता से क्यों जूझा जाय? जीत गए तो कहना ही क्या, मर गए तो भी कोई क्षति नहीं। मरना तो है ही, फिर बहादुरी के साथ क्यों मरे। निदान-

    छाड़ि दई तिहिंबाग बिचारि, दौरयौ सेख काड़ि तरवारि।

    सेख होय जितही जित जबै, भरभराइ भट भागै तबै।

    काटै तेग सोहियै सेखु, जनु तनु धरै धूमध्वज देखु।

    दड धरै जनु आपनु काल, मृत्यु सहित जग मनहु कराल।

    मारै जाहि खड द्वै होय, ताके सन्मुख रहै कोय।

    गाजत गजही सत हय खरे, बिन सुडनि बिन पायनि करे।

    नारि कमान तीर असरार, चहुँ दिसि गोला चले अपार।

    परम भयानक यह रन भयौ, सेखहि गोला लगि गयौ।

    जूझि सेख भूतल पर परे, नैकु ने पग पीछे कौ धरे।

    शेख़ का अंत हो गया और साथ ही युद्ध का भी। फलतः-----

    देखत कुँवर गए तब तहाँ, औबलिफजल सेख है जहाँ।

    परम सुगंध गंध तन भरयौ, सोनित सहित धूरि धूसरयौ।

    कछु सुख कछु दुख व्यापित भए, लै सिर कुँवर बडौनहि गए।

    अबुलफजल जीता हाथ लगा तो उसका सिर ही सलीम की सेवा में भेज दिया गया---

    देव सु बड़ गूजर सुत भले, चपतिराइ सीस लै चले।

    सीस साहि के आगै धरयौ, देखत साहि सकल सुख भरयौ।

    उधर अकबर को इसकी सूचना मिली, तो वेदना से उसका हृदय भर गया। फिर जब कुछ सचेत हुआ तब असदबेग की सूझी। तड़पकर कहा- कहाँ है असदबेग? लाओ इसी गुसलखाने में उसे दो टूक कर दूँ. असदबेग आया और ऐसी बात बनाकर लाया कि सबकी बन गई। किसी को इस हत्या का दंड भोगना पड़ा। असदबेग ने इस स्थिति में जो विवरण दिया वही आज के इतिहास का प्राण है, पर उसकी अप्रामाणिकता आप ही प्रकट है। प्रत्यक्ष है कि असदबेग ने इस प्रकरण में जो कुछ लिखा है वह इतिहास की शुद्ध और निष्पक्ष दृष्टि से नहीं। नहीं, उसे तो अकबर का कृपापात्र बनना तथा अन्यों को उसके कोप से बचाना था। निदान सारा दोष उसने भाग्य और अल्लामा की ऐठ के सिर मढ़ दिया और ऐसा मढ़ दिया कि आज भी वही इतिहास के मुँह से बोल रहा है। ‘दरबार अकबरी’ के लेखक मौलाना ‘आजाद’ को उसपर संदेह है, पर उनके पास अनुमान के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। उन्होंने कवि केशव को कब पढ़ा? रहे आजकल के शोधप्रिय डाक्टर लोग। सो विलायत के सामने घर को कब ढूँढ़ते हैं? बहुत हुआ तो ‘जहाँगीर’ के लेखक डाक्टर बेनीप्रसाद जी ने लिख दिया कि राजनीति के विचार से हिंदी-कवि केशवदास के ‘वीरसिंहदेवचरित’ का महत्व नहीं। बस, फिर किसी की दृष्टि उसपर क्यों पड़ने लगी और क्यो उसका भी नाम इतिहास में आने लगा? और तो और श्री गोरेलाल तिवारी का ‘बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास’ काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित होने पर भी इस हिंदी के कवि केशव से दूर ही रहा! पर नहीं, इतने दिनों पर आज एक हिंदी-प्रेमी के द्वारा यह बताया जाता है कि इस विषय में महाकवि केशव ने जो लिखा वह खरा और सरदार असदबेग ने जो कुछ कहा वह खोटा है। कारण ध्यान से सुनिए और फिर विचारकर कहिए कि आप का मत किधर है।

    असदबेग ने पहले तो अपनी सफाई दी है और फिर अल्लामा की भूलों का उल्लेख किया है। उसका सारा विवरण देख जाइए। उसमें भूल यदि किसी से होती है तो केवल उक्त अल्लामा से। उसके मतानुसार अल्लामा अबुलफजल यदि गोपालदास की बातों में आते और अपने मँजे हुए साथियों का कहना करते तो उनका यह अंत कदापि होता। पर जो होना था उसे कौन रोकता। शेख ने अपनी सेना छोड़ दी और गोपालदास की खड़ी की हुई नयी सेना को साथ लिया। गदाई खाँ को साथ लिया पर उसके सधे साथी वहीं छोड़ दिए गए। मिरजा मुहसिन ने निकल भागने को कहा पर उस पर कान नहीं दिया। आसपास के जागीरदार अपने सवारों को साथ भेजना चाहते थे पर शेख ने उनको भी साथ लिया। यहाँ तक कि एक फकीर ने भी सचेत किया पर उस पर भी ध्यान दिया। सारांश यह कि शेख का वध शेख की शेखी के कारण हुआ कुछ मुगली चाकरों की उपेक्षा के कारण नहीं। संदेह नहीं कि अल्लामा से कुछ भूल अवश्य हुई। उनकी सब से बड़ी भूल थी। उस मार्ग से आगे बढ़ना। पर इसे कुछ दूसरी दृषिट से भी तो देखे। वास्तव में ये दरबारी जीव वीरसिंह को क्या समझते थे और वस्तुतः मैदान में आने पर वह क्या निकला? क्या यही वीरसिंह एर के घेरे से बिजली की भाँति सर से नहीं निकल गया और चुनी हुई मुगल सेना अंत तक उसको पा सकी? इतिहास के लोग इसे क्यों भूल जाते है? असदबेग ने यहाँ भी तो यही किया? सभी अपराधियों को अपने विवरण की चातुरी से बचा लिया। सभी निर्दोष निकले। गया सो गया पर जीते को बचाओ, यही असदबेग का लक्ष्य रहा है कुछ सच्ची घटना के यथातथ्य वर्णन का नहीं। फलतः उसने अल्लाम के पक्ष को गिराया और सम्राट के सेवकों के पक्ष को बचाया है। उसकी कल्पना की इति तो वहाँ हो जाती है जहाँ वीरसिंह उक्त अल्लामा के शीश को अंक में लेता और उनके द्वारा झिड़का जाता है। उस समय जब्बार खाँ की लीला तो देखते ही बनती है। परंतु क्या यह संभव भी है?

    असदबेग को लीजिए, चाहे केशवदास को। दोनों ही बताते है कि वीरसिंह के रणभूमि में पहुँचने के पहले ही शेख धाराशायी हो चुके थे। सोचिए तो सही ऐसी स्थिति में वीरसिंह विरम कहाँ रहे थे। असदबेग कुछ भी कहता रहे, शेख ने ताड़ लिया था कि अब निकल जाना संभव नहीं। निदान उन्होंने लड़कर प्राण देना उचित समझा। भागकर प्राण गँवाना नहीं। वीरसिंह अपनी सधी सेना के साथ इसी घात में तो था कि शेख जिधर निकलें उधर से ही उन्हें ले लो। उसे अपनी बुद्धि तथा बाहुबल पर विश्वास था। उसने रात के समय छापा नहीं मारा। दिन दहाड़े शेख को एक हीझटके में ले लिया। भाग्य की बात छोड़िए। पर शेख ने यदि भूल की तो फिर किस सुभट ने वीरसिंह को पछाड़ दिया? इतिहास और असदबेग का ब्यारो भी इसका साक्षी है कि जो उसके सामने आया उसे मुँह की खानी पड़ी और वह जयी होने पर भी मुँह लटकाए ही रहा। फिर बेचारा अल्लामा ही इशके लिये दोषी क्यो? हाँ, इतना अवश्य हुआ कि उनकी स्थिति का ठीक ठीक बोध हुआ और उनकी अत्मबल का अधिक विश्वास रहा। सो केशवदास भी तो यही कहते हैं-

    आए सेख मीच के लिए, पुर पराइछे डेरा किए।

    औबलिफजलि बड़े ही भोर, चले कूँच कै अपनै जोर।।

    जो हो, हमें असदबेग से अधिक उलझने की कोई आवश्यकता नहीं। उसने उक्त अल्लामा की ऐठ के विषय में जो कुछ लिखा है, सब सही, पर हमारा कहना तो यह है कि इसी के कारण हमारे कवि केशवदास की इतनी उपेक्षा क्यो? स्मरण रहे, केशव ने जो कुछ लिखा है, वीरसिंह के सामने। अतएव उसकी साधुता में संदेह तभी हो सकता है जब उसमें वीरसिंह की कोरी प्रशंसा हो। आप केशव के वर्णन को ध्यान से पढ़ें औऱ ध्यान से देखे असदबेग के विवरण को भी और फिर विचार कर कहें कि चाटुकारिता किसमें अधिक है और किसने किस व्यक्ति किस रूप में देखा है। हमारा तो निश्चित मत है कि हिंदी के कवि केशव ने इस विषय में जो कुछ लिखा है वह सचमुच ‘प्रमाण’ है और उसके अभाव में वर्तमान प्रसंग भी अधूरा। ‘शरीफ खां’ का यह रूप हमें किस इतिहास में दिखाई देता है? इसके बिना क्या जहाँगीर की कृपा का रहस्य खुलता है? फिर भी अबुलफजल के प्रसंग अथवा जहाँगीर के इतिहास में केवश की पूछ नहीं। कारण आत्मपतन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है! ‘वीरसिंहदेवचरित’ का कोई अच्छा संस्करण भी तो नहीं? वैसे कहने को तो हिंदी में बहुत कुछ हो रहा है, पर सच पूछिए तो उस कुछ पर कितने लोगों का ध्यान गया है जो कुछ खोकर कुछ बनाने के लिये बना है कुछ यों ही कला दिखाने या बात बनाने के लिये ही नहीं। केशव का अध्ययन समुचित रूप से कब होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। कारण कि वे दरबारी और कठिन कविका के प्रेत है। परंतु इस जन का यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक इन दरबारी कवियो का अध्ययन डटकर नहीं होता और जब तक हमारे इतिहास-लेखक इस युग के कवियों का मथन जमकर नहीं करते तब तक हमारा सच्चा इतिहास तो बन नहीं सकता। वैसे तिथियों की धड़-पकड़ और गद्दियों का लेखा-जोखा चाहे जितना बने। अस्तु चोखा काम तो यही है कि हम किसी काल के इतिहास में तब तक हाथ लगाएं जब तक हमें उस काल के कवियों का योग मिला हो। कवि समाज की आँख है जो इतिहास के पन्नों में नहीं कविता के पदों खुलती और विवेक को प्रशस्त मार्ग दिखाती है। आशा है हमारे इतिहासकार कुछ हिंदी-कवियों से भी सीखेंगे और अल्लामा अबुलफजल के प्रंसग में इस बेचारे केशव से भी पूछ देंगे। हमारा विश्वास है कि यदि ‘वीरसिंहदेव चरित’ तथा ‘जहाँगीर-जस-चंद्रिका’ का प्रकाशन ठौर-ठिकाने से हो जाय तो इतिहास को भी कुछ आधार मिले और इस काल की बहुत सी गुत्थियाँ सुलझ जायँ। सुनते हैं इलाहाबाद की हिंदुस्तानी एकाडमी इस काम में लगी है पर उसका परिणाम कब देखने को मिलेगा, यह भी देखना है।

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