Sufinama

ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती की दरगाह

निसार अहमद फ़ारूक़ी

ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती की दरगाह

निसार अहमद फ़ारूक़ी

MORE BYनिसार अहमद फ़ारूक़ी

    तारीख़ की बा’ज़ अदाऐं अ’क़्ल और मंतिक़ की गिरफ़्त में भी नहीं आतीं। रू-ए-ज़मीन पर ऐसे हादसात भी गुज़र गए हैं जिनसे आसमान तक काँप उठा है मगर तारीख़ के हाफ़िज़े ने उन्हें महफ़ूज़ करने की ज़रूरत नहीं समझी और एक ब-ज़ाहिर बहुत मा’मूली इन्फ़िरादी अ’मल-ए-जावेदाँ बन गया है और उसके असरात सदियों पर फैल गए हैं। हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती (रहि.) का सीस्तान से चल कर आ’लम-ए-इस्लाम की सियाहत करते हुए राजस्थान की क़दीम तारीख़ी बस्ती अजमेर में आकर सुकूनत इख़्तियार कर लेना एक ऐसा ही वाक़िआ’ है जो ब-ज़ाहिर एक इन्फ़िरादी अ’मल था मगर उसके असरात बहुत गहरे और सदियों को अपनी आग़ोश में लिए हुए हैं।वो अजमेर में उस वक़्त तशरीफ़ लाए जब ये दिल्ली सल्तनत का हिस्सा नहीं बना था।

    बे सर-ओ-सामानी उनका सामान और तवक्कुल उनका सरमाया था। उनके आ’ला इस्लामी अख़्लाक़ी ता’लीम, इन्सान-दोस्ती, दिल-सोज़ी और मिस्कीन-नवाज़ी ने आ’म लोगों के दिल जीत लिए और उनकी हुकूमत दिलों की दुनिया में क़ाएम हो गई जिसे शाम-ओ-सहर की गर्दिश से कभी कोई गज़ंद नहीं पहुँच सकता।हज़रत ख़्वाजा अजमेरी जिन्हें अ’वाम अ’क़ीदत-ओ-मोहब्बत से “ग़रीब-नवाज़ और “सुल्तानुल-हिंद कहते हैं आख़िर उ’म्र में अजमेर तशरीफ़ लाए थे और 634 हिज्री या’नी जून 1227 ई’स्वी उनका विसाल हुआ। आप जिस हुज्रे में रहते थे उसी में दफ़्न किए गए।उस वक़्त से आज तक ये मुतबर्रक मक़ाम लाखों अ’क़ीदत-मंदों का क़िबला बना हुआ है।

    अय्याम-ए-उ’र्स के अ’लावा भी हर साल लाखों ज़ाइरीन यहाँ आस्ताँ-बोसी के लिए आते हैं। ख़्वाजा साहिब की ये दरगाह अजमेर के जुनूब मग़रिब में वाक़िअ’ है। दरगाह के पच्छिम में मोहल्ला इंदर कोट है। मशरिक़ में लंगर ख़ाना और जानिब-ए-शिमाल दरगाह बाज़ार है। जुनूब में वो झरना है जिसे झालरा कहा जाता है। इस से दरगाह को पानी सप्लाई होता था।

    दरगाह शरीफ़ के छोटे बड़े 21 दरवाज़े हैं और ये तीन हिस्सों पर मुन्क़सिम है।इब्तिदा में ये दरगाह बहुत मुख़्तसर और सादा थी। सबसे पहले यहाँ ख़िल्जी सलातीन माल्वा ने दरगाह का इहाता और गुंबद वग़ैरा ता’मीर कराया। शहनशाह-ए-अकबर को इस आस्ताने से बहुत अ’क़ीदत थी। उसने कई बार आगरा से अजमेर तक पा-पियादा सफ़र क्या। एक हाज़िरी में बड़ी देग नज़्र की जिसमें ब-यक वक़्त सवा सौ मन खाना पक सकता है। उस देग का मुहीत एक इंच सवा बारह गज़ का है।दूसरी देग जिसमें 80 मन खाना पकता है शहनशाह जहाँगीर ने नज़्र की थी। ये दोनों देगें दरगाह के सहन में नस्ब हैं। इनमें खाना पकने और फिर उसके लुटने का मंज़र हिन्दुस्तान भर में अपनी नौई’यत का निराला ही है।

    अकबर ने सहन-ए-दरगाह में हश्त-पहल चराग़-दानों की छतरी भी बनवाई थी जो अब तक मौजूद है।दरगाह शरीफ़ में दाख़िल होने का पहला शिमाली दरवाज़ा निज़ाम-गेट कहलाता है।ये निज़ाम हैदराबाद ने 1915 ई’स्वी में बनवाया था। इसके बा’द जो क़दीम छोटा दरवाज़ा आता है इसे शाहजहाँनी दरवाज़ा कहते हैं। ये शाहजहाँ ने ता’मीर कराया था। इस के क़रीब ही अकबरी मस्जिद है। ये अकबर ने जहाँगीर की पैदाइश के छः माह बा’द बनवाई थी।

    दरगाह के दूसरे इहाते में देगों के और चराग़-दान के अ’लावा एक वसीअ’ महफ़िल-ख़ाना है। ये 1891 ई’स्वी में हैदराबाद के अमीर पाएगाह नवाब सर आसमान जाह ने बनवाया था। उस के सामने एक हौज़ है जिसे धमाल-ख़ाना कहा जाता है क्योंकि यहाँ क़लंदर और दरवेश वज्द-ओ-रक़्स किया करते थे। उस पर एक छतरी बनी है जो 1911 ई’स्वी में बर्तानिया की मलिका मेरी ने नबवाई थी।

    मशरिक़ की जानिब लंगर ख़ाना है जिसमें अकबर का दिया हुआ एक बड़ा कढ़ाओ है जिसमें रोज़ाना दलिया पक कर फ़ुक़रा को तक़्सीम होता है। पहले यहाँ सहन में एक छोटी सी छतरी बनी हुई थी जिसके बारे में रिवायत थी कि उस जगह अकबर ने फ़क़ीरों के साथ सफ़ में खड़े हो कर दरगाह शरीफ़ का लंगर लिया था और फ़क़ीरों की यूरिश में उसका मिट्टी का प्याला टूट गया था। उस छतरी के गिरने के बा’द अब वहाँ एक हुज्रा बन गया है। तीसरा इहाता वो है जिसमें रौज़ा-ए-मुक़द्दसा वाक़िअ’ है।

    जानिब-ए-शिमाल एक छोटी सी मगर ख़ूबसूरत मस्जिद है जिसे संदली मस्जिद कहा जाता है इसलिए कि मज़ार-ए-मुबारक पर जो संदल पेश किया जाता है वो यहीं घिसा जाता है। इस से मिला हुआ रौज़ा-ए-मुबारक है। मग़रिब की तरफ़ शाहजहाँनी मस्जिद है जो 1637 ई’स्वी में बनी थी।मज़ार-ए-मुबारक के मशरिक़ दर के सामने जो घूँघट बना हुआ है उसे बेगमी दालान कहते हैं। ये शाहजहाँ की बेटी जहाँ आरा ने बनवाया था। उस के साथ ही तोशा-ख़ाना है जिसमें ग़िलाफ़ वग़ैरा रखते हैं। यहीं क़दीम ज़माने का नुक़रई’ सामान और शाही फ़रामीन वग़ैरा महफ़ूज़ हैं।मज़ार शरीफ़ का गुंबद सबसे पहले ग़यासुद्दीन सुल्तान मांडू ने बनवाया था। उस पर मोहम्मद आ’लम नामी बुख़ारे ने सवा मन सोने का कलश चढ़ाया था। अब जो गुंबद पर सुनहरा ताज है ये ख़ानदान-ए-रामपुर के एक रईस नवाब हैदर अ’ली ख़ान आफ़ बिल्सी का नज़्र किया हुआ है।

    अंदरूनी दीवारों पर सुनहरा काम नवाब मुश्ताक़ अ’ली ख़ान आफ़ रामपूर ने कराया था। मज़ार की छत में ज़र-दोज़ी का मख़मली शामियाना लगा है। और मज़ार पर एक संदली मसहरी थी जिस पर चाँदी चढ़ादी गई है। एक सुनहरी कठरा जहाँगीर ने पेश किया था वो तो अब नहीं है उसकी जगह चाँदी का कठरा लगा हुआ है जिसकी मरम्मत राजा जय सिंह वाली-ए-जयपुर ने कराई थी। अस्ल महजर जहाँ आरा ने बनवाया था। मशरिक़ दरवाज़ा पूरा संदल का बना हुआ है और ये अकबर ने लगवाया था।

    रौज़ा-ए-मुबारक के जुनूब में बी-बी जमाल का मज़ार है और जानिब-ए-ग़र्ब शाह जहाँ की बेटी हूरुन्निसा दफ़्न है।महफ़िल-ख़ाने के मग़रिब में ख़ानक़ाह है। ये वो मक़ाम है जहाँ हज़रत ग़रीब-नवाज़ का ख़ानदान रहता था। अकबर ने यह जगह ता’मीर कराई थी। दरगाह के सहन में जानिब-ए-मशरिक़ कुछ क़ब्रें हैं। उनमें एक क़ब्र निज़ाम सक़्क़ा की है जिसने हुमायूँ को डूबने से बचाया था और इन्आ’म में एक दिन की बादशाहत पाई थी।

    अजमेर शरीफ़ का ये आस्ताना पूरे बर्र-ए-सग़ीर में चिश्ती सिलसिले की सबसे बड़ी दरगाह है। जहाँ भी रुहानी फ़ैज़ पहुँचा है वो यहीं से पहुँचा है। इसलिए अजमेर को हिन्दुस्तान की रुहानी तारीख़ में सबसे ऊंचा मक़ाम हासिल है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : Monthly Munadi

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए