Sufinama

तज़्किरा-ए-फ़ख़्र-ए-जहाँ देहलवी

निसार अहमद फ़ारूक़ी

तज़्किरा-ए-फ़ख़्र-ए-जहाँ देहलवी

निसार अहमद फ़ारूक़ी

MORE BYनिसार अहमद फ़ारूक़ी

    मियाँ अख़लाक़ अहमद साहिब मरहूम मुहिब्बान-ए-औलिया-उल्लाह में से थे। मेरे हाल पर भी नज़र-ए-इ’नायत रखते थे। कभी कभी ख़त लिख कर याद फ़रमाया करते थे। मेरी बद-क़िस्मती है कि कभी उनसे मुलाक़ात का शरफ़ हासिल नहीं हुआ और 1989 ई’सवी में जब मेरा लाहौर जाना हुआ तो उनके मज़ार पर ही हाज़िरी हो सकी। अल्लाह तआ’ला मग़्फ़िरत फ़रमाए और अपनी रहमतों से सर-शार करे जो औलियाउल्लाह के लिए मख़्सूस हैं।

    मियाँ साहिब ने हज़रत शाह फ़ख़्रुद्दीन निज़ामी मुहिब्बुन्नबी देहलवी (विसाल27 जमादीउस्सानी 1199 हिज्री मुताबिक़ 7 मई 1785 ई’सवी रोज़ शंबा) के मुफ़स्सल हालात-ओ-मनाक़िब लिखने का इरादा फ़रमाया था और उसे दस अबवाब में तक़्सीम किया था। किताब के इ’ल्मी और तहक़ीक़ी मर्तबा का अंदाज़ा तो इस से होगा कि तक़रीबन 75 कुतुब-ए-मत्बूआ’-ओ-क़लमी से इस्तिफ़ादा किया गया। औलियाउल्लाह के हालात-ओ-मल्फ़ूज़ात लिखने के लिए सिर्फ़ मुवर्रिख़ और मुहक़्क़िक़ होना काफ़ी नहीं है। यहाँ अस्ल कार’ वरा-ए-शाइ’री चीज़े दिगर हस्त’ और वो कैफ़िय्यत निस्बत-ए-बातिनी के ब-ग़ैर हासिल नहीं होती। अलहम्दुलिल्लाह कि ये ने’मत मुसन्निफ़ मरहूम को मयस्सर थी। उसने किताब में जो कैफ़-ओ-रंग भरा है वो लफ़्ज़ बयान से मावरा है।

    इस किताब में हज़रत फ़ख़्र-ए-जहां के ख़ानदान, आपकी ता’लीम-ओ-तर्बीयत, बैअ’त-ओ-ख़िलाफ़त, मदारिज-ए-सुलूक की सैर और रुहानी फ़ुयूज़ के लिए सियाहत के अ’लावा आपका इ’ल्मी मर्तबा, तसानीफ़, ख़ुसुसियात-ए-सिलसिला, निज़ाम-ए- ख़ानक़ाह, नीज़ मुआ’सिरीन उ’ल्मा सूफ़िया का भी तज़्किरा शामिल है।

    हज़रत कलीमुल्लाह जहान-आबादी , हज़रत शाह निज़ामुद्दीन औरंगाबादी का हाल भी शर्ह-ओ-बस्त के साथ लिखा है। अ’लावा बरीं हज़रत हाजी ला’ल मुहम्मद चिश्ती मज़ार बख़्शुल्लाह वली बेग, शाह मुहिब्बुल्लाह देहलवी, ख़्वाजा मियां ममुहम्मद शाह होश्यारपुरी, मियां मुहम्मद अ’ली चिशती बसई शरीफ़ के तराजिम भी तफ़्सील से दर्ज किए हैं। इस तरह हज़रत फ़ख़्र-ए-जहां की हयात-ए-तय्यिबा अपने पूरे सियाक़–ओ-सबाक़ में हमारे सामने आती है और मुसन्निफ़ मरहूम ने हत्तल-वुस्अ’ कोई पहलू तिश्ना नहीं छोड़ा है। मुझे उम्मीद है कि सिलसिला-ए-आ’लिया चिश्तिया निज़ामीया से वाबस्ता हज़रात इस किताब को क़द्र-दानी के हाथों से लेंगे और मियां अख़लाक़ अहमद मरहूम के लिए रहमत-ओ-रिज़वान की दुआ’ करेंगे। इंशाअल्लाह ये उनके लिए तोशा-ए-आख़िरत साबित होगी।

    मुसन्निफ़ के साथ ही दो और शख़्सियतें भी हमारी ता’रीफ़-ओ-तहसीन और एहसानमंदी का हक़ रखती हैं। या’नी हज़रत हकीम मुहम्मद मूसा अमरतसरी अदामल्लाहु फ़ुयूज़ाहु और मुहिब्ब-ए-गिरामी साईं नज़ीर फ़रीदी साहिब जिन्हों ने इस किताब को मुसन्निफ़ मरहूम से लिखवाया और उनके सफ़र-ए-आख़िरत के बा’द इसकी इशाअत का बंद-ओ-बस्त किया। अल्लाह तआ’ला दोनों हज़रात को सेहत के साथ सलामत रखे।

    ये नामा-ए-सियाह इस लाएक़ नहीं है कि ऐसी पाकीज़ा शख़्सियत पर एक अहल-ए-दिल की लिखी हुई किताब के बारे में अपने शिकस्ता बस्ता ख़्यालात लिख कर मख़मल में टाट का पैवंद लगाए। मगर मेरे मख़दूम हकीम मुहम्मद मूसा अमरतसरी मद्दा ज़िल्लाहु आ’ली ने इशारा फ़रमाया और अ’ज़ीज़-ए-गिरामी साईं नज़ीर फ़रीदी ने बहुत मुहब्बत के साथ इसरार किया। ता’मील-ए-हुक्म और तालीफ़-ए-क़ल्ब के लिए ये चंद सतरें लिख दी गईं।

    हज़रत मौलाना फ़ख़्र-ए-जहां सिलसिला-ए-चिश्तिया निज़ामीया के मुजद्दिद हैं। उनकी ज़ात-ए-बा-बरकात से इस सिलसिले को नई ज़िंदगी और तब-ओ-ताब नसीब हुई। अ’वामुन्नास पर जितना असर हज़रत फ़ख़्र–ए-जहां का था उतना उस दौर में किसी और दरवेश का नज़र नहीं आता। उन्हों ने महसूस कर लिया था कि तब्लीग़-ओ-इर्शाद के लिए मादरी-ओ-इ’लाक़ाई ज़बान की क्या अहमिय्यत है। चुनांचे उस ज़माने में जब हज़रत शाह वलीउल्लाह देहलवी के फ़ारसी तर्जुमा-ए-क़ुरआन से भी मुतकश्शिफ़ उ’लमा का एक तबक़ा ख़ुश ना था। मौलाना फ़ख़्र-ए-जहां ने ख़ुतबा-ए-जुमआ’ के बारे में फ़रमाया-

    ”ख़ुत्बे का फ़र्ज़ होना वा’ज़ के लिहाज़ से है मगर चूँकि वो अ’रबी ज़बान में होता है और आ’म लोग उससे वाक़िफ़ नहीं इसलिए हिन्दी ज़बान (उर्दू) में उस का तर्जुमा बेहतर है”।

    (फ़ख़्रुत्तालिबीन उर्दू तर्जुमा सफ़हा75 तब्आ’ कराची 1961 ईसवी)

    आपके मशरब की वुसअ’त ऐसी थी कि ग़ैर मुस्लिम भी आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो कर कस्ब-ए-फ़ैज़ करते थे और बा’ज़ शिआ’ भी आप से इरादत का तअ’ल्लुक़ रखते थे।

    क़िला-ए-मुअ’ला में भी चिशती नसब का गुज़र मौलाना फ़ख़्र-ए-जहां के क़ुदूम-ए-मुबारक से हुआ। आप के दिल्ली तशरीफ़ लाने से पहले क़िला’ में नक़्शबंदी सिलसिला का असर था। समाअ’ भी नहीं होता था ।हज़रत शाह कलीमुल्लाह जहां आबादी भी अपने मख़्सूस यारान-ए-सिलसिला के साथ ख़ानक़ाह में बंद हो कर समाअ’ सुनते थे।

    ‘दर आं आवान वाली दिल्ली मआ’ आ’यान-ए-सल्तनत बर तरीक़-ए-नक़्शबंदिया बूदंद, अज़ समाअ’ बिस्यार नफ़रत मी- दाश्तन्द। क़ाइ’दा-ए-मज्लिस-ए-हज़रत-ए-शैख़ ईं चनीन बूद कि बजुज़ अहल-ए-तरीक़ा-ए-ख़ुद, दीगर कसे रा शरीक न-नमूदे अ’लावा आं कि बव्वाब अज़ आइंदगान-ए-मज्लिस इस्तिफ़सार करदंदे कि बैअ’त अज़ कुदाम सिलसिला अस्त? अगर जवाब देहद कि मन अज़ सिलसिला-ए-चिश्तिया हस्तम बा गुफ़ते कि दुरूद-ए-चिश्तिया ब-ख़्वां। अगर दुरूद ख़्वांदे बाज़ पुर्सीदे कि सुलूक चे क़दर तय-शुदा अगर बव्वाब रा मुब्तदी ख़ाम मा’लूम मी-शुद अंदरून-ए-मज्लिस इजाज़त–ए-रफ़्तन न-दादे, गुफ़्ते कि तू हनूज़ अहल-ए-ईं कार न-शुदी’।

    उस ज़माने में बादशाह-ए-दिल्ली और उमरा-ए-सल्तनत नक़्शबंदिया तरीक़ा पर थे और समाअ’ से बहुत नफ़रत रखते थे। हज़रत शैख़ कलीमुल्लाह की मज्लिस का क़ाइ’दा ये था कि अपने अहल-ए-तरीक़ा के सिवा किसी को समाअ’ में शरीक ना करते थे। इसके अ’लावा ये कि दरबान मज्लिस में आने वालों से पूछते थे कि तुम्हें किस सिलसिले में बैअ’त है? अगर आने वाला कहता कि मैं सिलसिला-ए-चिश्तिया में हूँ तो उस से कहते थे कि दुरूद-ए-चिश्तिया पढ़ो। अगर वो दुरूद पढ़ देता तो अब उस से पूछते कि तुमने सुलूक कितना तय किया है? अगर दरबान को वो मुब्तदी ख़ाम मा’लूम होता तो उसे मज्लिस के अन्दर जाने की इजाज़त ना देते थे और कहते थे कि अभी तुम इस काम (समाअ’) के लाएक़ नहीं हुए हो।

    (रिसाला दर अहवाल-ए-ख़ानदान-ए-फ़ख़्रिया। नाक़िस। वरक़26۔ अलिफ़। ममलूका राक़िमुल-हुरूफ़)

    ये हज़रत फ़ख़्र-ए-जहां की बदौलत हुआ कि चिश्ती ख़ानक़ाहों में नई रौनक़ पैदा हो गई।

    हज़रत फ़ख़्र-ए-जहां ने एक ज़ाती बयाज़ में अपने बा’ज़ मकशूफ़ात-ओ-वारदात सरसरी तौर पर क़लमबंद फ़रमाए थे। हज़रत के विसाल के बा’द उनके साहिबज़ादे हज़रत ग़ुलाम क़ुतबुद्दीन (वफ़ात18 मुहर्रम1233 हिज्री28 सितंबर1817 ईसवी ब-रोज़ जुमा’) से वो ब्याज़ सय्यिद शाह बदीउ’द्दीन (तकमिला सियारुल-औलिया सफ़हा120) को मुस्तआ’र मिली थी जिसे उन्होंने नक़्ल कर लिया था। ये ब्याज़ ख़ुद हज़रत फ़ख़्र-ए- जहां के क़लम से थी और उसे उन्होंने मस्तूर–ओ-मख़्फ़ी रखा था। याद-दाशतें भी कभी अ’रबी में , कभी फ़ारसी में कभी मख़लूत ज़बान में लिखी हैं और कई मवाक़े’ पर इ’बारत भी ग़ैर मरबूत है। ऐसा मा’लूम होता है कि उ’ज्लत में जो कुछ ख़्याल-ए-मुबारक में आया वो बतौर-ए-ख़ुद क़लम-बंद कर लिया। यहां पहली बार इस मुतबर्रक ब्याज़ से चंद इक़्तिबासात बतौर-ए-नमूना पेश करता हूँ।आग़ाज़-ए-ब्याज़ में शाह बदीउ’द्दीन ने हज़रत फ़ख़्र -ए-जहां के चंद क़तआ’त-ए- तारीख़-ए-वफ़ात भी दर्ज किए हैं:

    आह शाह कि बूद फ़ख़्र-ए-दीन-ए-मतीं

    ब-गुज़शत-ओ-गुज़ाश्त सीनाहा-ए-ग़मगीं

    तारीख़-ए-वफ़ात-ए-ऊ ख़िरद गुफ़्त हमीं

    अल्लाह अल्लाह मौलवी फ़ख़्रुदीं

    (1199 हिज्री)‌

    दीगर

    ज़हे मतलूब-ए-सुल्तानुल-मशाइख़

    ज़हे मंज़ूर-ए-ख़ास-ए-किब्रियाई

    ब-इस्म-ए-ख़ास फ़ख़्रुद्दीं मुहम्मद

    रसान्द: फ़ैज़ अज़ मह ता ब-माही

    सफ़र फ़रमूद चूं अज़ दार-ए-फ़ानी

    जनाब-ए-क़ुद्स आँ आ’लम-पनाही

    निदा आमद ज़े हर ख़ैल-ए-मलाइक

    ख़ुश मक़बूल-ए-महबूब-ए-इलाही

    (1199 हिज्री

    अब चंद वारदात-ओ-मकशूफ़ात मुलाहिज़ा फ़रमाएं:

    (1 ) रऐइतु फ़िल मनामि हज़रत पाक पतन फ़ि हुज्रतिन अन्ना मकानन लतीफ़न व-जल-सा फ़िहि हज़रत सुल्तानुल -मशाइख़ अय्यादानल्लाहु तआ’ला बि-लुत्फ़िहिल ख़फ़ी वल-जली व-अना तहसीलुल-मुलाज़मत क़ज़ा अफ़अ’लुल-क़दमबोसी

    मैंने पाक पतन के एक हुज्रे में ख़्वाब में देखा कि एक बहुत लतीफ़ जगह है जहां हज़रत सुलतानुलमशाइख़ (ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया) अल्लाह उनके अल्ताफ़-ए-ज़ाहिरी –ओ-बातिनी से मुझे तक़्वियत पहुंचाए तशरीफ़ फ़र्मा हैं और मैंने मुलाज़मत में हाज़िर हो कर क़दम-बोसी की है।

    व-मी-अंदाज़म सर-ए-ख़ुद रा दर हर दो ज़ानू-ए-आं एतिमाद-ए- दुनिया-ओ-दीन , साहिब-ए-क़िबला बिसयार ख़ुश अंद-ओ-अज़ ज़बान-ए-करामत तर्जुमान इर्शाद कर्दंद कि हज़रत मख़दूम साहिब के पास से आए हैं’ दरीं ज़िम्न हज़रत सुल्तान साहिब-ए-क़िबला यक रुपया अज़ जेब-ए-मुबारक गिरिफ़त: इ’नायत मी- फ़रमायंद। ग़ुलाम अ’र्ज़ कर्द कि हज़रत साहिब मी-फ़रमायंद। ग़ुलाम अ’र्ज़ कर्द कि हज़रत साहिब इस्ताद: अ’र्ज़ मी-नुमायंद कि- हज़रत से बहुत कुछ लेना है। ”लाखों लेना, दीन लेना, दुनिया लेना”

    और अपना सर दीन-ओ-दुनिया के उस सहारे के दोनों ज़ानूओं में रख दिया है। साहिब क़िबला बहुत ख़ुश हैं और अपनी ज़बान-ए-करामत तर्जुमान से इर्शाद फ़रमाते हैं। हज़रत मख़दूम साहिब के पास से आए हैं।’ इस हालत में हज़रत सुल्तान जी ने अपनी जेब से निकाल कर एक रुपया इ’नायत फ़रमाया है। ग़ुलाम ने अ’र्ज़ किया कि हज़रत से बहुत कुछ लेना है लाखों लेना, दीन लेना, दुनिया लेना।

    दरीं ज़िम्न ग़ुलाम यक रकाबी पुर अज़ शिरीनी–ओ-नान-ए-ख़मीरी नज़्र-ए-आ’ली गुज़रानीद ।फ़ातिहा इ’नायत कर्दंद। बाज़ ग़ुलाम यक मुसल्ला मी-गुज़रनीद-ओ-पार्चाहा-ए-बिस्यार नज़्दीक-ए-ग़ुलाम बुर्ददंद। दरीं मियान बेदार शुदम।रूए ख़ुद बाला-ए-कूए बुर्दम-ओ-आदाब-ए-सज्दा ब-जनाब-ए-हज़्रत-ए- मख़्दूम बजा आवर्दम।अल्हम्दुलिल्लाहि वल-मिन्ना (वरक़6۔)

    इसी में ग़ुलाम का आदमी दो रुपया नज़्र के लिए लाया और इस ग़ुलाम को दिए। ग़ुलाम ने हाथों पर रखकर नज़्र गुज़ारनी की। अज़ राह-ए-फ़ज़्ल क़ुबूल फ़रमाई। इत्तिफ़ाक़न इन दो रूपियों में एक रुपया बहुत बड़ा औरा दूसरा रिवाज के मुताबिक़ गोल और छोटा था। हज़रत साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैहि ने बच्चों से जो बैठे हुए थे अज़ राह-ए-लुत्फ़ फ़रमाया कि बड़ा रुपया लोगे या गोल छोटा वाला? बच्चों से हंसी मज़ाक़ फ़रमाया। नहीं ये चांदी है ग़ुलाम ने जस्त की सलाई पेश की तो फ़रमाया कि ये तो हमारे पास भी है ।उसी में ग़ुलाम ने एक रकाबी मिठाई से भरी और एक ख़मीर रोटी नज़्रर की। आपने फ़ातिहा इ’नायत की। फिर ग़ुलाम ने एक मुसल्ला नज़्र किया। ग़ुलाम के पास बहुत से कपड़े थे। इसी दरमयान में आँख खुल गई। मैंने ऊपर गली का रुख़ किया और हज़रत मख़्दूम शकर बार (बाबा फ़रीद) अल्लाह तआ’ला उनके ख़फ़ी –ओ-जली अलताफ़ से क़ुव्वत नसीब करे कि बारगाह में सजदा-ए-अदब बजा लाया। अल्हम्दुलिल्लाही वल-मिन्ना। और ये4/ सफ़र की शब में हुआ।

    (2) हज़रत-ए-शैख़ ख़ुद रा रज़ीयल्लाहु तआ’ला अ’न्हु क़दम-बोसी हासिल नमूदम बिस्यार मेहरबानंद–ओ-कलिमात-ए- शफ़क़त-आमेज़ फ़र्मूदंद ।मरा अज़ दीदन-ए-शफ़क़त-ए-आं जनाब-ए-आ’ली बिस्यार मसर्रत-ओ-शफ़क़त ब-दस्त आवर्द: -ओ-मन कैफ़िय्यत-ए-मुआ’मलात-ए-ख़ुद मी-गोयम कि हज़रत ख़्वाजा ऐ’न करम फ़र्मूदंद–ओ-मी-फ़र्मायंद कि मन हम बराए हमी मी-गोयम कि हाला इं ज़िक्र रा ब-कुनेद ब-अ’र्ज़ मी-रसानम कि इर्शाद शवद चुनांचे साहिब-ए-क़िला चार ज़ानू नशिस्तंद अज़ दीदन-ए-जलसा-ए-मुबारक ईं ग़ुलाम नशिस्त-ओ-रग-ए-कीमास रा ख़्वास्त कि ब-गीरद, साहिब-ए-क़िबला फ़र्मूदंद कि दरीं ज़िक्र गिरिफ़्तन-ए-कीमास लाज़िम नीस्त, मुरब्बा’ नशिस्तन अस्त लफ़्ज़-ए-अल्लाह रा जानिब-ए-चप ज़र्ब दादंद–ओ-सर-ए-ज़र्ब जानिब-ए-रास्त दादंद बाज़ ईं ग़ुलाम मुवाफ़िक़–ए-इर्शाद अदा नमूद, बाज़ फ़र्मूदंद कि ज़र्ब ब-ईं क़िस्म बायद दाद चुनांचे अज़ ज़र्ब-ए-साहिब-ए-क़िबला अय्यदनिल्लाहु बि-लुत्फ़िहि ख़फ़ी-ओ-जली ता आँ तहरीर नक़्श-ए-ख़ातिर अस्त मी-फ़र्मायंद कि दरीं हस्त–ओ-यक किताब अग़्लब अस्त कि निज़ामुल क़ुलूब अस्त मी-फ़र्मान्द कि दरीं अस्त लेकिन ब-नहजे दीगरस्त। शुमा ईं रा ब-कुनेद बिस्यार फ़ाइदा ख़्वाहद बख़्शीद ।अलहम्दलिल्लाहि-वल्मिन्ना

    (रिसाला-ए-वारदात-ए-फ़ख़्रिया क़लमी वरक़7۔8)

    मैंने अपने शैख़ रज़ीयल्लाहु तआ’ला अ’न्हु की क़दम-बोसी का शरफ़ हासिल किया। बहुत मेहरबान हैं और शफ़क़त-आमेज़ कलिमात फ़र्मा रहे हैं। मुझे जनाब-ए-आ’ली की शफ़क़त देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है और मैं अपने मुआ’मलात की कैफ़िय्यत बयान कर रहा हूँ। हज़रत ख़्वाजा करम कर के फ़रमाते हैं कि मैं भी तो इसीलिए कहता हूँ कि अब तुम ये ज़िक्र करो मैंने अ’र्ज़ किया कि इर्शाद फ़रमाएं चुनांचे साहिब-ए-क़िबला चार ज़ानू बैठ गए हैं और आपकी नशिस्त देखकर ये ग़ुलाम भी उसी तरह बैठ गया और रग-ए-कीमास को पकड़ना चाहा तो साहिब-ए-क़िबला ने फ़रमाया कि इस ज़िक्र में कीमास को पकड़ना ज़रूरी नहीं है। बस चार ज़ानूँ बैठना है।अल्लाह के लफ़्ज़ को बाएं जानिब से उठाया और दाहिनी जानिब तीन ज़र्बें लगाईं।फिर इस ग़ुलाम ने इर्शाद के मुताबिक़ अदा किया। फिर फ़रमाया कि ज़र्ब इस तरह लगानी चाहिए।

    चुनांचे साहिब-ए-क़िबला की ज़र्ब का अंदाज़ा इस तहरीर के वक़्त तक दिल पर नक़्श है। और एक किताब जो ग़ालिबन निज़ाम-उल-क़ुलूब है उस के बारे में फ़रमाते हैं कि इस में है मगर दूसरी तरह से तुम ये करो इस से बहुत फ़ाइदा होगा

    अलहमदुलिल्लाही वलमिन्ना।

    (3) फ़ि पाक पतन रऐतु फ़िल-मनाम फ़ि-लैलिर राबे’ मिन रबीइ’ल अव्वल अन अजईआ–ओ-क़ाला रजुलुन इख़्ला’ ना’लैक, फ़ी-यक़ूलुल क़ाइलुन ख़ला’तु ना’लैक–ओ-आ’तैतुन ना’’लेन लिर-रजुल़्क़ाइलिलमुहाफ़िज़-ओ-रऐतु मस्जिदन हरीक़ल-मोहब्त काना क़ाइमन मक़ामन अस्लिय्यन–ओ-जमीअ’अल-मकानि क़ाइमन बिलमकानिल अस्ली इल्ला हौज़न कबीरन मवाजिहतल बाबलजन्नति लिल-हरीक़िलमोहब्बाति कसीरिन मिनन्नासु यतवज़्ज़ऊन क़रीबा बाबल्जन्नत–ओ-बि अन यस्जुदुना इला बाबि फ़त्हिन मन यंज़ुरु मा फ़िल गुम्बददिश शरीफ़ वर्रिजालु युसल्लूना वयस्जुदूना वल तत्लुबूनल्ककातिबा बि-अन युसल्लिया यस्जुदाहु अना अत्वज़्ज़ाउ अ’लल हौज़िल-लज़ी रआ बिलमवाजिहति व-अना-अतवज़्ज़ाउ अ’ल-लहौज़ि फ़अ’लतुल वज़ूअ तमामन अक़्सदु लिज़िहाबि इलल-जमाअ’तिल-लज़ी युसल्लुन वयसजुदून अ’ली अलगुम्बदिश शरीफ़ बिअन युक़रनर्रिजाल फ़ी-हालतिस सज्दा वजहन लिलक़ुतुबि वलमस्जिद क़ाइम मक़ाम फ़हसल हाकज़ा।।

    (वरक़9-10)

    रबीउलअव्वल की शब में पाक पतन में ख़्वाब देखा कि मैं आया हूँ और कोई कहता है अपनी जूती उतार दो। दूसरा कहता है कि जूती उतार दी है पर हिफ़ाज़त के लिए कहने वाले शख़्स को दे दी हैं। फिर मैंने हरीक़ुलमोहब्बत (बाबा साहिब की मस्जिद) को देखा वो उपनी जगह पर है। सब इ’मारतें अपनी असली जगह पर हैं मगर एक बहुत बड़ा हौज़ जन्नती दरवाज़े के मुक़ाबले में है और लोग उस में वुज़ू कर के जन्नती दरवाज़े के क़रीब जा रहे हैं, बहुत से लोग जन्नती दरवाज़े के क़रीब नमाज़ पढ़ रहे हैं।

    और जन्नती दरवाज़े से गुंबद शरीफ़ के अंदर का मंज़र नज़र रहा है, लोग नमाज़ पढ़ रहे हैं , सज्दा कर रहे हैं और राक़िम-उल-हुरूफ़ से भी कह रहे हैं कि नमाज़ पढ और सज्दा कर ले ।मैंने हौज़ पर वुज़ू किया और जमाअ’त के लिए उधर जाने का इरादा किया जहां गुंबद शरीफ़ की तरफ़ लोग नमाज़ पढ़ रहे हैं। देखा कि लोग हालत-ए-सज्दा में क़ुतुब की जानिब हो कर के कुछ पढ़ रहे हैं और मस्जिद अपनी जगह पर क़ाएम है इसी में आँख खुल गई।

    (4)रोज़-ए-रुख़्सत शख़्से मज्ज़ूबे नज़दीक-ए-दरवाज़ा-ए-बहिश्ती रू ब-रू-ए- हज़रत-ए हरीक़िलमोहब्बत दीद: गुफ़्त कि हुक्म हुआ है कि सेह नफ़ल यक दोगाना नज़्र-ए-अल्लाह दोउम मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि-वसल्लम, सेउम मलाइका, लेकिन ब-तरीक़-ए-शुग़्ल-ए-पास-ए-अन्फ़ास गुफ़्त (वरक़10)

    एक दिन एक मज्ज़ूब शख़्स बहिश्ती दरवाज़े के सामने मिला और कहने लगा”हुक्म हुआ है कि तीन कामिल एक दोगाना नज़्रर अल्लाह, दूसरा नज़्र मुहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम, तीसरा नज़्र मलाइका इन शुग़्ल पास-ए-अन्फ़ास के तरीक़ पर कहा।

    5 .यक-बार सेह रोज़ क़ब्ल अज़ रुख़्सत पेश अज़ सुब्ह दर मुवाजिह-ए-हज़रत मख़दूम-ए-शकर बार अय्यादिनिल्लाह ब-लुतफ़िहिल-ख़फ़ी वल-जली नशिस्त: बूदम, यक-बारगी मी-बेनम कि गोया महफ़िल क़ायम अस्त –ओ-तक़्सीम-ए-ख़ुर्मा मी-शवद चुनांचे ख़ादिमे यक ख़ुर्मा या पंज लेकिन अग़्लब अस्त कि पंज ख़्वाहद बूद ब-दसत-ए-मन दाद मन ख़ुद रा दरां जा कि नशिस्त: बूदम न-याफ़्तम बल्कि नज़दीक-ए-साहिब-ए-क़िबला याफ़्तम तकबीर-ए-नमाज़-ए-सुब्ह शुद अल्हम्दुलिल्लाहि वल-मिन्ना। दर नमाज़ शामिल शुदम बाद अज़ान रोज़-ए-मुंतज़िर-ए-ख़ुर्मा बूदम-ओ-हालाँकि तबर्रुक रस्म-ए-दस्तार-ओ-सलारी मी-बूद वक़्ते कि अव्वल रुख़्सत अज़ साहिब-ए-सज्जादा शूद: बूदम दसतार सलारी इ’नायत कर्द: बूदंद बा’द अज़ां तवक़्क़ुफ़ ब-मियान आमद कि साहिबज़ादा-ए-आ’लीक़द्र तरफ़े तशरीफ़ फ़र्मूदा बूदंद दरीं ज़िम्न पांज़द: या शांज़द: रोज़ राह रफ़्तन मौक़ूफ़ शुद, चूं बाज़ आमदंद हर गाह ईं ग़ुलाम कि बराए मुलाक़ात रफ़्त फ़ुक्रा-ए- जलाली वुरूद कर्दंद नज़र-ए-साहिबज़ादा ख़ुर्मा आवर्दन्द आं साहिबज़ादा-ए-आ’लीक़द्र हवाला-ए-ख़ादिमे कर्दंद चुनांचे ग़ुलाम कातिब-उल-हुरूफ़ अज़ आं ख़ादिम यक ख़ुर्मा तलब कर्द, ब-मुजर्रद-ए-इस्तिमा’-ए-साहिब सज्जादा-ए-आ’लीक़द्र तमाम ख़ुर्मा ब-मा इ’नायत कर्दंद, शुमार कर्दम पंच अ’दद बूदंद, मा’लूम कर्दम कि हाला रुख़्सत अस्त चुनांचे दर दो सेह रोज़ इत्तिफ़ाक़-ए-रवाना शुदन शुद अल्हम्दुलिल्लाहि अ’ला ज़ालिक

    (वरक़11-12)

    एक-बार रुख़्सत होने से तीन दिन पहले सुब्ह की नमाज़ से क़ब्ल हज़रत मख़दूम शकर बार बाबा साहिब अल्लाह उनके ख़फ़ी–ओ-जली अलताफ़ से मेरी तक़वियत फ़रमाए के मुवाजिह में बैठा हूँ, अचानक देखता हूँ कि महफ़िल क़ाइम है और छुहारे बट रहे हैं। चुनांचे एक ख़ादिम ने एक छुहारा या पाँच ग़ालिबन पाँच थे मेरे हाथ में रख दिया मैंने ख़ुद को जहां बैठा था वहां नहीं पाया बल्कि साहिब-ए-क़िबला के पास पाया, इसी में आँख खुल गई और ख़ुद को उसी जगह देखा।

    नमाज़-ए-सुबह की तकबीर हो रही थी। अल्हम्दुलिल्लाही वल-मिन्ना।

    नमाज़ में शरीक हो गया। उस दिन के बा’द से छुहारों का मुंतज़िर रहा। हालाँकि तबर्रुक की रस्म दस्तार और सलारी है, जब पहली बार साहिब-ए-सज्जादा से रुख़्सत हुआ था तो उन्होंने दस्तार और सलारी मुझे इ’नायत फ़रमाई थी, फिर कुछ ठहरना हुआ तो साहिब-ए-सज्जादा किसी जानिब तशरीफ़ ले गए, इस तरह15-16 दिन तक जाना मौक़ूफ़ रहा। जब वो वापस तशरीफ़ लाए और ये ग़ुलाम मुलाक़ात करने गया तो कुछ जलाली फ़ुक़रा आए हुए थे। उन्होंने साहिबज़ादा को छोहारे नज़र किए। वो साहबज़ादे ने एक ख़ादिम के हवाले कर दिए। ग़ुलाम कातिब-उल-हुरूफ़ ने उस ख़ादिम से एक छोहारा तलब किया। ये सुनते ही साहिब-ए-सज्जादा ने वो सब छोहारे मुझे इ’नायत कर दिए। मैंने गिने तो पूरे पाँच थे। जान लिया कि अब रुख़्सत है। चुनांचे दो तीन दिन बा’द रवानगी का इत्तिफ़ाक़ हुआ। अल्हम्दुलिल्लाहि अ’ला ज़ालिक।

    (6)रऐतु फ़ि-लैलि इहदा इशरीन मिन रबीइ’ल अव्वल सन्14 अहमद शाह ईं ग़ुलाम अल-कातिब जलासा मुवाज-ह-तश-शैख़ कलीमुल्लाह अय्यददानिल्लाहु बि-लुत्फ़िहिल ख़फ़ी वल-जली हज़रत शैख़ कलीमुल्लाह यतबस्सामु यब्ताजिहु यक़ूलु अल कातिबु रऐतु शुग़्लि-तवज्जोह फ़ी –किताब-ए-आं हज़रत अल-मुसम्मा कशकोल फ़य्क़ूलु क़ुद्दिसल्लाहु सिर्राहुल-अ’ज़ीज़ “कुछ थोड़ा सा बाक़ी है”।

    मैं ने21/ रबीउ’ल अव्वल सन4 जुलूस-ए-अहमद शाही की शब में ख़्वाब देखा कि ये ग़ुलाम राक़िम-उल-हुरूफ़ हज़रयत शैख़ कलीमुल्लाह जहां आबादी अल्लाह उनके लुत्फ़-ए-ख़फ़ी –ओ-जली से मेरी ताईद फ़रमाए के सामने बैठा है और हज़रत-शैख़ कलीमुल्लाह तबस्सुम फ़र्मा रहे हैं और बहुत ख़ुश हैं। ये राक़िम कह रहा है कि मैंने शुग़्ल-ए-तवज्जोह आँ हज़रत की किताब कशकोल में देखा है हज़रत क़ुद्दिसल्लाहु सिर्राहुल –अ’ज़ीज़ ने फ़रमाया कुछ थोड़ा सा बाक़ी है।

    (7)रऐतु यौमल –उ’र्स-ए-हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग रज़ीयल्लाह तआ’ला अ’न्हु फ़ि तहत-ए-क़ुदूम-ए-हज़रत ख़्वाजा शहीद अल-महबूब अय्यादानील्लाहु तआ’ला बि-लुत्फ़िहा-अल-ख़फ़ी वल-जली आँ हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग आं हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग यामुरु:”तुमने एक ख़त्म हमारा ना किया, ख़त्म-ए-चिश्तिया पढ़ा करो।

    (वरक़12)

    मैंने हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग रज़ीयल्लाह तआला अ’न्हु के उ’र्स के दिन देखा कि मैं हज़रत ख़्वाजा शहीदुलमुहब्बत (ख़्वाजा क़ुतुब) अल्लाह उनके अलताफ़-ए-ख़फ़ी–ओ-जली से मेरी ताईद फ़रमाए के क़दमों के नीचे बैठा हूँ और ख़्वाजा बुज़ुर्ग फ़र्मा रहे हैं तुम ने एक ख़त्म हमारा ना किया, ख़त्म-ए-चिश्तिया पढ़ा करो।

    (8)रऐतु फ़ि हज़रत पाक पतन फ़िल-लैलिल ख़ामिसि मिन -लमुहर्र्म अन अज़्कुरा ज़िक्रल जह्रि व-लैसा यसदुरुज़र्बा मिन्नी फ़्य्क़ूलुश्शख़्सू कसरत के तईं दख़्ल है। (15 ۔ब)

    मैंने पाक पतन शरीफ़ में 5 मुहर्रम की रात को देखा कि मैं ज़िक्र-ए-जेह्र कर रहा हूँ और मेरे मुँह से ज़र्ब नहीं निकल रही है तो मुझसे कोई कह रहा है कसरत के तईं दख़्ल है।

    (9) रऐतु फ़िल-मनाम अन्ना शैख़ल-वहीद फ़अ’ल हवालती बि-क़ुतुब साहिब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब शहीदुल्लाह हज़रत क़ुतुब साहिब हवाला हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगां हज़रत गंज शकर फ़र्मूदंद बा’द अज़ां ब-दस्तूर-ए-मा’मूल दर जनाब-ए- मुस्तताब बारयाब-ए-हुज़ूर शूद: दर मस्जिद-ए-शाह-जहाँ हुज़ूर-ए-आँ क़िबला या’नी रकअ’तैन-ए-सुन्नत-ए-फ़ज्र अदा कर्द: इंतिज़ार-ए-अदा-ए-फ़ज्र मी-कर्दंद यकायक अज़ ख़ुद रबूदंद दीदम कि नूरे बि-ला जिस्म अज़ गुम्बद-ए-शरीफ़ मी-आयद नज़दीक-ए-इं ग़ुलाम आमद:-ओ-यक सबद रेवड़ी कि तबर्रुकन मी-देहंद-ओ-दर यक सबद-ए-गुल दादंद। अल्हम्दुलिल्लाहि सुम्मा अल्हम्दुलिल्ला (वरक़ 20 ब)

    मैंने ख़्वाब में देखा कि मेरे शैख़ुल-वहीद ने मुझे क़ुतुब साहिब के हवाले किया और हज़रत क़ुतुब साहिब ने हज़रत ख़्वाजा-ए- ख़्वाजगां गंज शुकर रहम्तुल्लाहि तआ’ला के हवाले किया

    उस के बा’द मा’मूल के मुताबिक़ मैं हुज़ूर में बारयाब हुआ और मस्जिद-ए-शाह-जहाँ में आँ हुज़ूर के सामने फ़ज्र की दो रकअ’त सुन्नतें अदा कर के नमाज़-ए-फ़ज्र अदा करने का इंतिज़ार करने लगा। अचानक मुझ पर ग़शी सी तारी हो गई और मैंने देखा कि एक बे-जिस्म का नूरानी हयूलाई गुम्बद शरीफ़ से निकला और इस ग़ुलाम के नज़दीक आया। एक टोकरी में रेवड़ी जो तबर्रुक के तौर पर दी जाती है और दूसरी टोकरी में फूल मुझे दिए।

    अलहमदु लिल्लाहि सुम्मा अल्हम्दुलिल्लाहि

    (10) रऐतु फ़िल-मनामि हीना क़सद्द्तुल ज़ियारता फ़ि-मक़ाम –ए-पाए पत इन्ना शख़सन सालिहन जाअ फ़ि-यदाहि ख़ुम लेकिन ख़ुम अज़ शीशा अस्त मी-गोयद कि ईं शराब अज़ गंज शकर अस्त ब-नोशेद –ओ-ब-दीगरां हम ब-नोशानेद। वस्सलामु अ’ला मनित्त्बाअल हुदा (23 ब)

    जब मैंने पानीपत में ज़ियारत का क़स्द किया तो ख़्वाब मेँ देखा कि एक सालिह शख़्स सामने आया जिसके हाथ में एक ख़ुम था, मगर वो ख़ुम शीशे का था। उसने कहा ये गंज शकर की शराब है। तुम भी पियो औरों को भी पिलाओ। सलाम हो उस पर जिसने हिदायत की पैरवी की।

    (11) रऐतु फ़िल-मनामि मर्रतन उख़्रा फ़ि जहां-आबाद इन्ना शैख़ल-इस्लाम शहीदल मोहब्बत क़ाइमुन-ओ-फ़ि यद-ए-शख़्सिन आख़र क़दहुन शफ़्फ़ाफ़ुन कबीरुन ममलूउन निनल माइ-ए-वलग़ुलामु यख़्ज़ू हज़वल-शैख़ुल-इस्लाम क़ाला लि-श्ख़्सिल -लज़ी फ़ि यदाहि ये भी उन्हीं को दो”चुनांचे ब-मूजिब-ए-इर्शाद पियाला ब-दस्त-ए-ग़ुलाम दाउद ग़ुलाम दर-दस्त गिरफ़्त व-बे-दार शुद।

    (वरक़22۔ अलिफ़)

    एक बार और मैंने जहां -आबाद (दिल्ली) में ख़्वाब देखा कि शैख़ुल-इस्लाम शहीदुल्मुहब्बत (ख़्वाजा क़ुतुब साहिब) खड़े हैं और दूसरे एक शख़्स के हाथ में एक बड़ा शफ़्फ़ाफ़ पियाला पानी से भरा हुआ है। ये ग़ुलाम शैख़ुल-इस्लाम के क़दम-बा-क़दम चल रहा है। उन्होंने उस शख़्स से जिस के हाथ में कटोरा है फ़रमाया: ये भी उन्हीं को दो।

    चुनांचे ब-मूजिब-ए-इर्शाद उस शख़्स ने पियाला ग़ुलाम के हाथ में दे दिया। मैंने हाथ में पकड़ा और आँख खुल गई।

    (12)फ़िल-यक़ज़ा फ़ि-सनाति4 अहमद शाह बा’दा यौमिल अर्बा’ फ़ि-सुबहिल ख़मीस वक़्ता ग़ुसलिलमज़ारिश शरीफ़ ज़हब्तुल सहरा लि-दफ़इ’लहाजतिल बशरिय्यती वलम्मा हसलतुत तहारता फ़अक़ूमु क़ासिदल मजईअल रौज़ातश शरीफ़ि इज़ा समि’तु सौतन मिनस्स्माइ मिनल यमिनि बग़ततन ग़ुस्ल होता है। फ़-लिहाज़िहिस-समाइ तवज-जह्तु -ओ-क़ुम्तु बि-सिमाइस-सौति-ओ-तहय्यर्तु फ़-रऐतु मिसलि मतरि यमशूना अफ़वाजन अफ़वाजन –ओ-यक़ूलूना बिल जहरि ग़ुस्ल होता है। फ़्लम्मा समि’तु मुकर्रारन सौतलहातिफ़ि फ़-वज्जह्तु हज़ीनन समीमन –ओ-तवज़्ज़ातु सरीअ’न फ़जि’तु बि-रौज़तिश शरिफ़ति सुल्तानिल आ’शिक़ीन अय्यादिनियल्लाहु बि-लुतफ़िहिल-ख़फ़ी वल-जली फ़रऐतु अन्नल ग़ुस्ला यकूनु वलम्मा क़ुमतु फ़ि-जनाबि मलाज़िल ग़ुरबाइ फ़जाअल ख़ादिमु नज़रा व-अना बाकियन फ़-क़ाल अल-ख़ादिम ख़ुज़ माअल-ग़ुस्लि वलसिक़ बिलयमीनि व-आतल-ख़िर्क़तल मुताबर्रका अलहमदु लिल्लाहि रब्बिल-आ’लामीन हमदन कसीरन कसीरन।

    (वरक़24 ब)

    सन 4 जलूस-ए-अहमद शाही में बुध के बा’द और जुमे’रात की सुब्ह को बेदारी की आ’लम में मज़ार शरीफ़ के ग़ुस्ल के वक़्त में हाजत–ए-बशरी की तकमील के लिए जंगल की तरफ़ निकल गया। जब तहारत कर चुका और रौज़ा शरीफ़ की तरफ़ जाने के लिए उठा तो अपनी दाहिनी सम्त में आसमान की तरफ़ से एक सदा सुनी ग़ुस्ल होता है। ये सुनते ही मैं आवाज़ की तरफ़ मुतवज्जिह हुआ और हैरान हो गया। देखा कि बारिश की तरह फ़ौज दर फ़ौज जा रहे बा-आवाज़ कहते हैं कि ग़ुस्ल होता है।

    जब मैंने दुबारा ये ये आवाज़ सुनी तो सिद्क़ दिल से मुतवज्जिह हुआ। जल्दी से वुज़ू किया और रौज़ा शरीफ़ (ख़्वाजा बुज़ुर्ग) की तरफ़ आया। देखा कि वहां ग़ुस्ल हो रहा था ।जब मैं ग़रीब-नवाज़ की पनाह में खड़ा हुआ था तो एक ख़ादिम आया और उसने मुझे रोते हुए देखा। ख़ादिम ने कहा कि ग़ुस्ल का पानी लो और आँखों से लगा लो। उसने मुझे ख़िर्क़ा-ए-मुतबर्रका भी दिया।

    अल्हम्दुलिल्लाहि कसीरन कसीरन

    (13)मर्रतन वाहिदन रऐतु अन्नल इस्बाअल आज़म बि-क़ुद्वतिल अस्हाबस्सिद्दिक़िल अकबर सलातुल्लाहि अ’ला न-बिय्यिना व-अ’ला आलिहि दर दहन मी-दकर्द–ओ-मी-लेसम नागाह बेदार शुदम (वरक़27 ब‌)

    एक-बार मैंने देखा कि हज़रत सिद्दीक़-ए-अकबर हमारे नबी पर सलात–ओ-सलाम हो और आपके आल-ओ-अस्हाब पर। इसी हाल में आँख खुल गई।

    (14)मर्रातन उख़्रा रऐतु फ़िल-मनामि फ़ि लैलतिसलासि मिन रबीइ’स-सानी अन्ना हज़रत शाह कलिमुल्लाह शैख़ी सनदी यक़ूल अना सवाअस सबील अना अक़रउ लकुम व-अक्सरुल-किताब यतलबु फ़ि हाज़ल ज़मानि क़रातु अ’ला हुज़ूरि-लबारिक फ़-बा’दु हाज़ा यक़ूलु शैख़’।

    आपके पढ़ने से बहुत ख़ुशी हुई व-यक़ूलुश शख़्सु”तुम्हारी निस्बत का पैग़ाम किफ़ायत ख़ां की बेटी से किया है।

    चुनांचे सूरत-ए-आं अ’जूज़ा किफ़ायत ख़ां आवर्द:” अंद मी- गोयंद कि ईं सूरत मी-दारद।

    (वरक़28 ब)

    एक बार मंगल की रात को रबीउ’स सानी के महीने में ख़्वाब देखा कि शैख़ी–ओ-सनदी हज़रत शाह कलीमुल्लाह फ़र्मा रहे हैं कि सवाउस-सबील मैं तुम्हारे लिए पढ़ता हूँ और अक्सर हिस्सा का पढ़ना तलब करते हैं इस वक़्त मैं हुज़ूर-ए- मुबारक में पढ़ता हूँ तो शैख़ फ़रमाते हैं कि आज के पढ़ने से बहुत ख़ुशी हुई फिर कोई शख़्स कहता है कि ”तुम्हारी निस्बत का पैग़ाम किफ़ायत ख़ां की बेटी से किया है।

    चुनांचे दुख़्तर-ए-किफ़ायत ख़ां की तस्वीर लाए हैं और कह रहे हैं कि उसकी ऐसी सूरत है।

    ये मुख़्तसर रिसाला जिसका कोई नाम नहीं सुहूलत के लिए मैंने इसे “वारदात-ए-फ़ख़्रिया से मौसूम किया है 40 सफ़हात को मुहीत है। हर सफ़हा में औसतन 12 सतरें हैं। रिसाला का साइज़ 18X13 सेंटीमीटर है। इसे सय्यिद बदीउ’द्दीन ख़लीफ़ा हज़रत फ़ख़र-ए-जहां ने शब-ए-यकशंबा हफ़्तुम शा’बान1216 हिज्री 13 दिसंबर1801ईसवी को नक़्ल किया है। इस नुस्खे़ से इसकी एक नक़्ल कामिल अली शाह क़ादरी मुल्तानी ने 22 शव्वाल1308 हिज्री 31 मई1891 ईसवी को ग़ालिबन हैदर आबाद दक्कन में तैयार की। नुस्ख़ा का कातिब बहुत ग़लत नवीस है और ब-ज़ाहिर अ’रबी ज़बान से क़तअ’न वाकिफ नहीं है।उसने नक़ल में बे-शुमार गलतियां की हैं और बा’ज़ आसान-ओ-मा’मूली अल्फ़ाज़ को भी कुछ से कुछ कर दिया है। हमने ये चंद इक़्तिबासात बतौर-ए-नमूना दिए हैं और इस की इ’बारत में जो क़वाइ’द या ज़बान की ग़लतियां हैं उन्हें ब-दस्तूर बाक़ी रखा है। एक-आध जगह पर मा’मूली सी क़यासी तस्हीह कर दी है।

    इस रिसाले से हज़रत फ़ख़्र-ए-जहां के अस्फ़ार का हाल भी मा’लूम होता है ।जिन शहरों का इस में तज़्किरा है उनमें “औरंगाबाद, बुरहानपूर, उज्जैन, अम्बाला, शाहपुर, पानीपत, पाक पतन, अजमेर, जयनगर, (जयपुर) दिल्ली वग़ैरा के नाम आते हैं।

    शख़्सियात में हज़रत ख़्वाजा अजमेरी, हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब शाह, हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊद गंज शकर, हज़रत इब्राहीम सानी, हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया , हज़रत चिराग़ देहली, हज़रत कमालुद्दीन अ’ल्लामा, हज़रत शैख़ कलीमुल्लाह जहां-आबादी, हज़रत निज़ामुद्दीन औरंगाबादी और बा’ज़ दूसरे बुज़ुर्गों के नाम आते हैं।

    इस रिसाले में बेश्तर अहवाल–ओ-वारदात का तअ’ल्लुक़ अजमेर शरीफ़ पतन शरीफ़ की हाज़िरी के ज़माने से है और उनका ज़माना-ए-अ’ह्द अहमद शाह (आग़ाज़1161 हिज्री 1748 ईसवी) है। बा’ज़ मक्शूफ़ात पर सन4 सन जुलूस-ए-अहमद शाही तारीख़ दी है।

    इसी से ये इ’ल्म होता है कि बेशतर वारदात उस ज़माने की हैं जब हज़रत का सिन शरीफ़ 40 साल से कम था और ग़ालिबन शादी भी नहीं हुई थी क्योंकि एक इंदिराज से मा’लूम होता है कि हज़रत की मंगनी किफ़ायत ख़ां की दुख़्तर-ए-नेक अख़तर से हुई थी और उनकी सूरत आ’लम-ए-कश्फ़ में हज़रत को दिखा दी गई थी। (वरक़28 ब)

    रिसाला वारदात-ए-फ़ख़्रिया में सौ के क़रीब मक्शूफ़ात क़लम-बंद हुए हैं। बा’ज़ ख़्वाब हैं कुछ वो हैं जो नीम-बेदारी की हालत में पेश आए और कुछ अहवाल का मुशाहिदा जागते में किया गया है।

    हज़रत फ़्ख़्रर-ए-जहां का विसाल 27 जमादी -उस-सानी या1199 हिज्री7/ मई171785 ईसवी हफ़्ता को सुब्ह के वक़्त हुआ। ये रिसाला विसाल के 17 साल के बा’द सय्यिद बदीउ’दीन ने नक़्ल किया। इस की इ’बारत को क़ाबिल-ए-इशाअ’त बनाने के लिए बहुत दीदा-रेज़ी-ओ-मग़्ज़-पाशी की ज़रूरत है।

    अल्लाह ने तौफ़ीक़ दी तो इसे मुकम्मल हालत में शाए’ किया जाएगा।

    मियां अख़लाक़ अहमद मरहूम मग़्फ़ूर की इस किताब के साथ इस रिसाले का तआ’रुफ़ पहली बार शाए हो रहा है और ये वाबस्तगान-ए-सिलसिला-ए-चिश्तिया फ़ख़्रिया के लिए एक एक ने’मत-ए-ग़ैर मुतरक़्क़बा से कम नहीं है। मेरी दुआ’ है कि मरहूम की ये किताब मक़बूल हो और उनके लिए सरमाया-ए-आख़िरत बने। आमीन

    वस्सलातु वस्सलामु अ’ला रसूलिहिल-करीम व-अ’ला आलाहि व-अस्हाबिहि अजमई’न।

    स्रोत :
    • पुस्तक : Monthly Munadi

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