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सुलूक-ए-नक़्शबंदिया - नासिर नज़ीर फ़िराक़ चिश्ती देहलवी

निज़ाम उल मशायख़

सुलूक-ए-नक़्शबंदिया - नासिर नज़ीर फ़िराक़ चिश्ती देहलवी

निज़ाम उल मशायख़

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    सिल्सिला-ए-आ’लिया नक़्शबंदिया की इस्तिलाहों की शर्ह में मुतक़द्दिमीन-ओ-मुतअख़्ख़िरीन सूफ़िया रहिमहुमुल्लाह ने दफ़्तर के दफ़्तर सियाह कर डाले हैं। हज़ारों रिसाले और सैंकड़ों किताबें दिखाई देती हैं मगर हज़रत उ’र्वतुल-उस्क़ा ख़्वाजा मोहम्मद मा’सूम ने जो हज़रत मुजद्दिद-अल्फ़-ए-सानी रज़ीयल्लाहु अ’न्हु के फ़र्ज़ंद हैं इस बारे में कमाल किया है। या’नी एक मुरीद के पूछने पर एक छोटे से ख़त में उन इस्तिलाहों के हक़ीक़ी मा’नी को इस तरह ज़ाहिर फ़रमाया है जिस तरह एक महबूब-ओ-दिल-रुबा का सरापा आईना में दिखाया जाए और निगह से मुख दिखाया जाए। ख़ाल-ओ-ख़त, अंदाज़-ओ-अदा कोई बाक़ी रहे। मैं उस इक्सीर-ए-आ’ज़म को तालिबों के सामने पेश करता हूँ। मगर इस से पहले ये अ’र्ज़ भी ज़रूरी है कि अगर तर्जुमे में मुझसे कोई ग़लती हुई हो तो उसको मुआ’फ़ फ़रमाएं क्योंकि मुआ’मला-ए-तसव्वुफ़ का मुझ जैसे ख़ताकार का समझना दुश्वार है। हम लोग ज़बान के सूफ़ी हैं हाल कुछ भी नहीं। इसीलिए मौलाना रुम रहमतुल्लाहि अ’लैह फ़रमाते हैं।

    क़ाल-रा ब-गुज़ार मर्द-ए-हाल

    पेश-ए-मर्दे कामिले पा-माल शौ

    व-हूवा हाज़ा। अल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आ’लमीन वस्सलातु-वस्सलामु अ’ला सय्यिदिल-मुर्सलीन मोहम्मदिन-ओ-वआलिहि-व-अस्हाबिहि अज्मई’न।अम्मा बा’द। मुझसे सलाह-ए-आसार शैख़ मोहम्मद इल्यास ने दरख़्वास्त की कि नक़्शबंदिया मुजद्ददिया तरीक़ा की बा’ज़ इस्ततिलाहों की मैं शर्ह कर दूँ। अगर्चे मेरा ज़हन क़ासिर है मगर शैख़-साहिब के फ़रमान की ता’मील करता हूँ।

    सफ़र दर वतन

    सैरुन-नफ़्सी का दूसरा नाम जज़्बा है। हम लोग अपने काम को इसी सैर से शुरूअ’ करते हैं और सैर-ए-अफ़ाकी जिसे सुलूक कहते हैं इसी के ज़िम्न में तय हो जाती है मगर और सिल्सिला के मशाइख़ अपने मुआ’मला को सैर-ए-आफ़ाकी से शुरूअ’ करते हैं और सैरुन-नफ़्सी पर ख़त्म कर देते हैं। इस वास्ते हमारे हज़रात ने फ़रमाया है कि औरों की इंतिहा हमारी इब्तिदा होती है या हमारी इब्तिदा औरों की इंतिहा होती है। अब ये भी मा’लूम करना चाहिए कि सैर-ए-अफ़ाकी और सैरुन-नफ़्सी चीज़ क्या है। सैर-ए-अफ़ाकी मतलूब की जुस्तुजू है जो सूफ़ी अपने वुजूद के दाइरा से बाहर जहान में करता है। और सैरुन-नफ़्सी मतलूब की तलाशी अपनी ज़ात के अंदर करनी और अपने दिल के हिसार के चारों तरफ़ फिरने को कहते हैं।

    ख़ल्वत दर अंजुमन

    आदमी जब मह्फ़िल में बैठता है तो उसका दिल बट जाता है और लोगों की काएं काएं उसे भुला देती है। पस सूफ़ी वो है जो इस भीड़-भाड़ और हुल्लड़ में मतलूब को भूले और इस चीख़म धाड़ में महबूब के साथ इस तरह मश्ग़ूल हो गोया ख़ल्वत है और उसके और उस के यार के सिवा कोई तीसरा मौजूद नहीं है।

    अज़ बुरूँ दर्मियान-ए-बाज़ारम

    अज़ दरूँ ख़ल्वतीस्त बा-यारम

    गोया कसाले का काम है। शुरूअ’ शुरूअ’ में ‘ख़ल्वत दर अंजुमन’ के लिए बड़ा ज़ोर लगाना पड़ता है। मगर रफ़्ता-रफ़्ता हल्का हो जाता है। ये मुजाहिदा अगर्चे और हज़रात के सिल्सिला में भी पाया जाता है मगर हमारे तरीक़ा-ए-नक़्शबंदिया में ये ख़ुसूसिय्यत के साथ करना पड़ता है इसी लिए कहा गया है।

    अज़ दरूँ शौ आश्ना रोज़-ए-बुरूँ बे-गाना बाश

    ज़ीं चुनीं ज़ेबा सन्अ’त कम मी-बुवद अंदर जहाँ

    नज़र बर-क़दम

    इससे ये मुराद है कि जब सूफ़ी रास्ता चले तो इधर उधर देखे। नज़र ऐसी नीची करे गोया आँखें पाँव पर धर कर सी दी हैं क्योंकि इन्सान का दिल नज़र के ताबे’ होता है। जिधर नज़र जाती है उधर ही ये फैल जाता है और परेशान हो कर मत्लूब को भूल जाता है। क्या ख़ूब कहा है।

    बल्कि मश्ग़ूल कुनम दीदा-ओ-दिल रा कि मुदाम

    दिल तुरा मी-तलबद-दीदा तुरा मी-ख़्वाहद

    होश दर दम

    इससे ये मुराद है कि सूफ़ी अपने हर सांस को चौकसी में कर ले और महबूब को भूले और एक दम ग़फ़्लत में काटे।

    याद कर्द

    जब तक सालिक को मल्का-ए-हुज़ूरी नसीब नहीं होता है और मंज़िल-ए-हक़ीक़त को नहीं पहुंचता है मक़ाम-ए-याद कर्द में रहता है।

    दाएम हम: कस दर हम: कार

    मी-दार नहुफ़्त: चश्म-ए-दिल जानिब-ए-यार

    याद-दाश्त

    जब सालिक”याद कर्द” की तक्लीफ़ से निकल जाता है और उसको हुज़ूर-ए-दवामी हासिल हो जाता है और ऐसा मल्का बहम होता है कि कोई हरकत उसे नहीं मिटा सकती है तो याद-दाश्त के मक़ाम पर फ़ाइज़ होता है और सुलूक की सारी जान यही है।

    दारम हम: जा बा-हम: कस दर हम: हाल

    दर दिल ज़े-तू आरज़ू-ओ-दर दीद: ख़याल

    याद-दाश्त के मा’नी एक और भी हैं मगर वह तहरीर मे समा नहीं सकते।

    वुक़ूफ़-ए-क़ल्बी

    दिल की हिफ़ाज़त और निगरानी को कहते हैं जो ब-ग़ैर ज़िक्र के की जाए। सालिक हर-दम ध्यान रखे कि कोई तफ़रिक़ा डालने वाली बात दिल में समाए और ग़ैर नक़्श उस में बैठने पाए क्योंकि दिल इक आन बेकार नहीं रहता है। इसलिए कि जब तक इन्सान जागता है ज़ाहिर के पाँचों आ’ज़ा जासूसी करते हैं और दम-ब-दम इधर उधर की ख़बरें उसे देते हैं और मत्लूब की तरफ़ से तफ़रिक़ा डाल देते हैं। जब इन्सान सो जाता है तो बातिन के हवास ये काम करते हैं और दिल को डांवाँ-डोल बनाते हैं और ये ना-मुराद रहता है। इस के दफ़ई’या के लिए वुकूफ़-ए-क़ल्बी है। जब साहिब-ए-दिल वुकूफ़-ए-क़ल्बी के ज़रिआ’ से दिल की तरफ़ तवज्जोह करता है तो दिल के चारों तरफ़ एक क़िला’ बन जाता है और उसके अंदर हवास-ए-ख़मसा ज़ाहिरी और हवास-ए-ख़मसा बातिनी घुसने नहीं पाते हैं और दिल मुराद को पहुंच जाता है क्योंकि पहले कहा गया है कि दिल एक लह्ज़ा के लिए बेकार नहीं रहा करता है। पस जब उस के रस्ते बंद कर दिए जाते हैं तो वो उस मश्ग़ला को क़ुबूल कर लेता है जैसे सालिक चाहता है। या’नी जब वो इन दर-अंदाज़ों से पाक हो जाता है तो दिल-दार उसमें बे-बुलाए आकर अपनी रा’नाई दिखाता है क्योंकि जब आईना पर से ज़ंग उड़ जाता है तो नूर आप ही अपना जोबन दिखाने लगता है। मैंने अपने वालिद-ए-बुजु़र्ग-वार (या’नी हज़रत मुजद्दिद अल्फ़-ए-सानी रज़ी अल्लाहु अ’न्हु) की ज़बान-ए-मुबारक से सुना है कि जब सालिक ज़िक्र-ए-क़ल्बी से फ़ैज़याब हो तो उस वक़्त मुर्शिद को लाज़िम है कि ज़िक्र-ए-क़ल्बी उस से छुड़वा दे और सालिक को वुकूफ़-ए-क़ल्बी पर लगाए। उम्मीद है कि जल्द कामयाब हो।

    वुक़ूफ़-ए-अ’ददी

    नफ़ी-ओ-इस्बात के जानने से मुराद है। या’नी सालिक को नफ़ी-ओ-इस्बात के ज़िक्र में इस क़दर मल्का हो जाना चाहिए कि जब तरीक़ा-ए-नक़्शबंदिया के क़ानून के मुवाफ़िक़ करने बैठे तो हर सांस ताक़ कहे जुफ़्त होने पाए।

    मुराक़बा

    तरक़्क़ुब से मुश्तक़ है जो बाब-ए-तफ़अ’उ’ल का एक मस्दर है जिसके मा’नी इंतिज़ार हैं।

    हमः चश्मियम ता बुरुँ आरी

    हमः गोशियम ता चे फ़रमाई

    एक बुज़ुर्ग फ़रमाते हैं कि मैंने मुराक़बा बिल्ली से सीखा है और मुराक़बा की अस्ल हक़ीक़त ये है कि हक़-तआ’ला की हुज़ूरी सालिक को नसीब हो और इ’ल्म-ए-इलाही से उसे मुशर्रफ़ फ़रमाएं।

    सुल्तान-ए-ज़िक्र

    इस से ये मुराद है कि सालिक का रोवाँ रोवाँ और बाल बाल दिल बन जाए और ज़िक्र-ए-इलाही में उसका सरापा हर वक़्त डूबा रहे।

    राबिता

    पीर की सूरत याद रखने को कहते हैं जो दिल में होता है। हज़रत ख़्वाजा उ’बैदुल्लाह अहरार रहमतुल्लाहि अ’लैह ने जिस मक़ाम पर ये फ़रमाया ‘साया-ए-रहबर बिह अस्त अज़ ज़िक्र-ए-हक़’। इस से यही राबिता मुराद है। या’नी शैख़ का तसव्वुर ख़ुदा के ज़िक्र से ज़ियादा नफ़अ’ देता है क्योंकि बेचारा मुरीद आ’लम-ए-सिफ़्ली में गिरफ़्तार होता है और आ’लम-ए-बाला से कुछ तअ’ल्लुक़ नहीं रखता है और उस आ’लम के फ़ैज़ और बरकतों तक उस की रसाई होती है। पस ज़रूरत है कि इस आ’लम और मुरीद के दर्मियान एक क़ुव्वत हो जो आ’लम-ए-अ’ल्वी और सिफ़्ली दोनों में तसर्रुफ़ कर सकती हो ताकि आ’लम-ए-अ’ल्वी के फ़ैज़ान और बरकतों को लाकर आ’लम-ए-सिफ़्ली के रहने वालों को उससे सैराब कर दे और ये क़ुव्वत शैख़ की ज़ात ही होती है जिसे मक़ाम-ए-बेचूनी तक इत्तिसाल और ग़ैबुल-ग़ैब तक रसाई होती है और फिर वो आ’लम-ए-शहादत की तरफ़ रुजूअ’ करता है। पस जिस क़दर मुरीद अपने पीर के साथ राबिता रखेगा उतना ही फ़ैज़-ए-बातिनी हासिल करेगा। और जो चीज़ें राबिता को बढ़ाती हैं वो शैख़ की ख़िदमत और अदब-ए-ज़ाहिरी और बातिनी और उसके आ’दात और इ’बादात और मुरादात की पैरवी है। मुरीद शैख़ के हुज़ूर में इस तरह रहे जिस तरह मुर्दा नहलाने वाले के हाथ में रहता है और उसी राबिता से मुरीद अपने शैख़ में फ़ानी हो जाता है। इसीलिए अकाबिर ने फ़रमाया है। फ़ना फ़ीश्शैख़ मुक़द्दमा-ए-फ़ना-फ़िल्लाह है।

    अ’दम

    इस फ़ना से मुराद है जिसमें सूफ़ी अपनी हस्ती और हस्ती के शुऊ’र को बिल्कुल भूल जाए।

    वुजूद-ए-अ’दम

    उस बक़ा को कहते हैं जो अपनी फ़ना पर क़ाइम होती है और चूँकि ये फ़ना बक़ा जज़्बा की जिहत से लाहिक़ होती हैं इसलिए सुलूक से मुल्हक़ नहीं होती हैं और इस वास्ते इसमें धड़का रहता है कि मुबादा बशरिय्यत औ’द कर आए। यही वजह है कि विलायत इस फ़ना-ए-वुजूदी से राबिता नहीं रखती है। अलबत्ता वुजूद-ए-फ़ना वो शय है जिसे विलायत से तअ’ल्लुक़ है और उस में बशरिय्यत पलट कर नहीं सकती है और हाल को पा-ए-दारी होती है।

    फ़ना-ए-हक़ीक़ी

    मा-सिवा के भूल जाने और मा-सिवा के इ’ल्म के मिट जाने का नाम है। हमारे हज़रत-ए-अक़्दस मुजद्दिद साहिब रज़ीयल्लाहु अ’न्हु फ़रमाते हैं कि अगर सूफ़ी से अश्या का इ’ल्म-ए-हुज़ूरी ज़ाइल हो जाए तो उसे फ़ना-ए-क़ल्बी कहते हैं। और अगर इ’ल्म-ए-हुज़ूरी बाक़ी रहे तो फ़ना-ए-नफ़्स कहेंगे।

    वुजूद-ए-फ़ना

    उस बक़ा का नाम है जिस पर क़ुर्बत हासिल हो और उस में कभी औ’द नहीं करती है।

    बाज़गश्त

    उसे कहते हैं कि बा’द ज़िक्र-ए-नफ़ी-ओ-इस्बात के जो मा’मूल से सालिक दिल की ज़बान से कहे कि ख़ुदावंद मेरा मक़्सूद सिवाए तेरे और तेरी रज़ा के कुछ नहीं है।

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