Sufinama

ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी

ख़्वाजा हसन सानी

ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी

ख़्वाजा हसन सानी

MORE BYख़्वाजा हसन सानी

    ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान, हज़रत ख़्वाजा अजमेरी रहमतुल्लाहि अलै’ह हिन्दुस्तान में भेजे हुए आए थे।वो नाइब-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलै’हि-व-सल्लम और अ’ता-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलै’हि-व-सल्लम हैं। सरकार-ए-दो-आ’लम सल्लल्लाहु अलै’हि-व-सल्लम के रुहानी इशारे और हुक्म पर उन्होंने हमारी इस धरती के भाग्य जगाए लेकिन उनके जानशीन हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब रहमतुल्लाहि अलै’ह का दम क़दम, हम दिल्ली वालों की मोहब्बत और अ’क़ीदत का समरा है। इन ख़्वाजा (रहि.) को हमने यहाँ रोका है। उनका दामन अपने कमज़ोर हाथों से हमने थामा था वर्ना वो तो यहाँ से सिधार चले थे। पीर उन को कूच का हुक्म दे चुके थे। अ’जीब वाक़िआ’ हुआ था वो भी।

    हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती दिल्ली तशरीफ़ लाए तो सरकारी और दरबारी मौलवी शैख़ नज्मुद्दीन सुग़रा से भी मिलने गए जो उन दिनों शैख़ुल-इस्लाम के ओ’ह्दे पर ब्राजमान और हज़रत ख़्वाजा रहमतुल्लाहि अलै’ह के पुराने मुलाक़ाती थे।शैख़ुल-इस्लाम अपने मकान के पास खड़े चबूतरा बनवा रहे थे। हज़रत ख़्वाजा की तरफ़ मुतवज्जिह नहीं हुए। ख़्वाजा (रहि.) ने फ़रमाया क्यों शैख़ुल-इस्लामी के मन्सब ने आपको इस क़दर दिमाग़-दार बना दिया है? शैख़ बोले नहीं हुज़ूर। मैं तो वैसा ही अ’क़ीदत-मंद और मुख़्लिस हूँ जैसा पहले था लेकिन मुझ ग़रीब को कोई पूछता नहीं।

    ख़्वाजा इस दिल-चस्प गिले पर मुस्कुराए और कहा मौलाना आप घबराएँ नहीं अपने बख़्तियार को हम अजमेर साथ ले जाऐंगे और फिर ख़्वाजा क़ुतुब से फ़रमाया बाबा बख़्तियार तुम यकायक इतने मक़बूल हो गए हो कि लोगों को शिकायत होने लगी है। हम नहीं चाहते कि तुम्हारी वजह से किसी एक आदमी का दिल भी मैला हो चलो हमारे साथ अजमेर चलो। तुम बैठना, हम खड़े रहेंगे।

    ख़्वाजा साहिब सन्नाटे के आ’लम में बोले हुज़ूर ये क्या फ़रमाते हैं। मख़्दूम के सामने बैठना तो कैसा मैं तो खड़े रहने की जुर्अत भी अपने अंदर नहीं पाता हुक्म की ता’मील में यहाँ था हुक्म की ता’मील में अजमेर चलूँगा।

    और वाक़ई’ ये दोनों बुज़ुर्ग दिल्ली छोड़ अजमेर के लिए चल पड़े।

    हम दिल्ली वाले हज़ार नालाइक़ सही मगर उस वक़्त हमारी अ’क़ीदत काम दिखा गई। आगे आगे ये पीर और मुरीद थे और पीछे पीछे दिल्ली की ख़िल्क़त। रोती धोती, नाला-ओ-फ़रियाद करती पैर पड़ती और कहती कि हज़रत ख़्वाजा आप हमारे बाबा क़ुतुब को कहाँ से ले जाते हैं हम भला यहाँ किसके सहारे रहेंगे?

    ख़्वाजा-ए-ख़्वाज-गान ने अपने चहेते मुरीद को दिल्ली ही में ठहरने का हुक्म दिया और फ़रमाया ले जाओ ये शहर तुमको सौंपा। ख़िल्क़त तुम्हारी जुदाई से बेचैन-ओ-बे-क़रार है। मैं नहीं चाहता कि एक दिल की ख़ातिर इतने सारे दिल ख़राब और कबाब हों। चुनांचे हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब दिल्ली में ठहर गए और उस वक़्त से आज तक शहर और ये मुल्क उनकी पनाह में है।

    हज़रत अमीर ख़ुर्द किर्मानी ने सियारुल-औलिया में हज़रत ख़्वाजा अजमेरी की करामात बयान करते हुए लिखा है कि इससे बढ़कर बुजु़र्गी और करामत और क्या हो सकती है कि जो भी हज़रत ख़्वाजा का मुरीद हुआ उसने ख़िल्क़त की दस्त-गीरी की,दुनियावी ग़ुरूर को तर्क किया और आख़िरत को अपनी मंज़िल और अपना मक़्सद ठहराया।

    दस्त-गीरी, तर्क-ए-ग़ुरूर , आख़िरत का ख़्याल, ख़्वाजा (रहि.) के आ’म मुरीदों की सिफ़ात थीं। ख़्वाजा क़ुतुब साहिब तो आ’म नहीं, ख़ास, बल्कि ख़ासुल-ख़ास मुरीद थे। ख़िलाफ़त पर जाएज़ जां-नशीनी से सरफ़राज़ और ऐसे लाडले, ऐसे चहेते कि पीर-ओ-मुर्शिद प्यार से ख़ुद उस मुरीद की ख़िदमत बजा लाना चाहते थे। यहाँ रंगत और ख़ुश्बू और बहार सारी की सारी ही थी जो ख़ुद अजमेरी ख़्वाजा (रहि.) की थी और जिसको वो ख़ास मक्के मदीने की सौग़ात बनाकर लाए थे। रहमत-ए-आ’लम की सौग़ात, मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलै’हि-व-सल्लम की सौग़ात, जिस सौग़ात का तज़्किरा आसान भी है और मुश्किल भी। आसान यूँ कि हर शख़्स अपनी झोली उस से भर सकता है और मुश्किल यूँ कि सारी झोलियों में भी उसकी समाई नहीं हो सकती ।उस की लख लुट दाता ने देस बिदेस, अपने पराए, सबको भर भर मिट्टी दिया और वही दिया जिसकी लेने वाले को ज़रूरत थी ।हर जगह तलब-गारों की बसारत और बसीरत के मुताबिक़ ही रूप दिखाया गया। चुनांचे जो जल्वा ख़्वाजा (रहि.) लेकर आए थे उसको हिन्दुस्तानी आँख देख सकती थी। उनकी मधुर आवाज़ हिन्दुस्तानी कानों में रस घोलती थी तो ऐसा लगता था जैसे ये बात सुनी सुनी सी हो।उनका पैग़ाम नया और अछूता ज़रूर था लेकिन उसमें अजनबिय्यत के बजाए आश्नाई थी। अंदर से कोई कहता था कि ये सब कुछ तो एक दफ़ा’ पहले भी कान में पड़ चुका है। तौहीद और एक ख़ुदा की परस्तिश चाहे अ’मल में रही हो लेकिन जो ख़ून रगों में दौड़ता था और बुज़ुर्गों से विर्से में मिला था वो कभी तौहीद का कलिमा पढ़ चुका था। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ का ज़ौक़ बिल्कुल फ़ना नहीं हुआ था। ख़्वाजा रहमतुल्लाहि अ’लै’ह ने बद-अ’मली के फोड़े पर निश्तर लगाया और अंदरूनी ज़ौक़ को ख़ून में से उभार कर बाहर लाए।

    हिन्दुस्तान में कथाएं ज़रूर बखानी जाती थीं और बखानी जाती हैं लेकिन हमारे हज़रत सुल्तान जी के ब-क़ौल ये मुल्क बुनियादी तौर पर वा’ज़-ओ-तक़रीर का मुल्क नहीं है यहाँ हमेशा तक़रीर से ज़्यादा तासीर पर ज़ोर दिया गया। ये मौन बरत का देस है। ख़ामोशी, ज्ञान ध्यान, तप और त्याग, अंदर के तेज की तरफ़ ही भारत वासियों के दिल झुकते और राग़िब होते हैं। यहाँ वाइ’ज़ घर-घर और मिंबर-मिंबर नहीं फिरता।हक़ के मुतलाशी ख़ुद किसी ज्ञानी, ध्यानी और त्यागी की आह लेने को घूमते हैं। चिश्ती बुज़ुर्गों में हिंदुस्तानियों के इस ज़ौक़ की तस्कीन का सामान सबसे ज़्यादा हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की ज़ात वाला सिफ़ात में मिलता है। हज़रत, हमेशा शुग़्ल ‘ली-मअ’ल्लाह’ में मह्व रहते थे। गुफ़्तुगू बहुत कम फ़रमाते। अक्सर इस्तिग़राक़ का आ’लम तारी रहता। मिलने वाले आते, ख़ामोश कुछ देर हज़रत के पास बैठते और सर्द-दिलों में इस तरह गर्मी पैदा होती जैसे जाड़ों में धहकते अलाव के अतराफ़ ठंडे पाला जिस्म को लोग गरमाते हैं।प्यासों के लिए पानी के कूज़े भरे रखे रहते थे। आ’लम-ए-तहय्युर से बाहर आकर हज़रत उनकी तरफ़ इशारा फ़रमाते। हाज़िरीन से मा’ज़रत करते और फिर याद-ए-इलाही में मह्व हो जाते। ये मह्विय्यत इस क़दर गहरी होती थी कि हज़रत के फ़र्ज़ंद का इंतिक़ाल हो गया। घर में से बीवी के रोने की आवाज़ आई तो हज़रत चोंके और कहा अफ़्सोस हमने अपने बच्चे की सेहत की और ज़िंदगी की दुआ’ मांगी अगर मांगते तो अल्लाह तआ’ला ज़रूर क़ुबूल फ़रमाता।

    हज़रत की रिह्लत भी आ’लम-ए-तहय्युर में हुई। हज़रत शैख़ अ’ली की ख़ानक़ाह में मह्फ़िल-ए-समाअ’ बरपा थी। अहमद जाम रहमतुल्लाहि अलै’ह का मशहूर शे’र

    ‘कुश्तगान-ए-ख़ंजर तस्लीम रा

    हर ज़माँ अज़ ग़ैब जाने दीगरस्त’

    पढ़ा जा रहा था। ‘ख़ंजर-ए-तस्लीम के कुश्तगान के लिए हर ज़माने में एक नई ज़िंदगी ग़ैब से होती है’ हज़रत पर हालत तारी हुई। वहाँ से घर आए तो मुतग़य्यर और मदहोश थे। क़व्वालों को यही शे’र पढ़ने का हुक्म हुआ। क़व्वाल गाते रहे और हज़रत मदहोश रहे। सिर्फ़ नमाज़ के वक़्त होशयार हो कर नमाज़ अदा फ़रमा लेते और फिर हाल तारी हो जाता। पाँचवें रात को विसाल फ़रमाया।

    नमाज़ के वक़्त होशयार हो जाने से मा’लूम होता है कि हज़रत की बे-ख़ुदी ग़ैर-इख़्तियारी नहीं थी बल्कि याद-ए-इलाही, मुराक़बे और मुशाहिदे की वजह से हज़रत किसी और तरफ़ इल्तिफ़ात फ़रमाते थे। वर्ना ज़ाहिरी हयात तो ज़ाहिरी हयात थी।दुनिया से पर्दा फ़रमाने के बा’द भी ये आ’लम है कि एक दफ़ा’ सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया मज़ार-ए-मुबारक पर हाज़िर हुए तो दिल में ख़तरा गुज़रा कि इतनी ख़िल्क़त हज़रत के पास आती है ख़ुदा मा’लूम हम लोगों की हाज़िरी की हज़रत को ख़बर भी होती है या नहीं। फ़ौरन क़ब्र शरीफ़ से आवाज़ आई

    मरा ज़िंद: पिंदार चूँ ख़्वेशतन

    मन आयम बजाँ गर तू आई ब-तन

    हमको अपनी तरह ज़िंदा समझो। तुम जिस्म के साथ आते हो तो हम जान के साथ आते हैं।

    हज़रत महबूब-ए-इलाही रिवायत फ़रमाते हैं कि ख़्वाजा क़ुतुब साहिब ऐसे शब-बेदार थे कि हज़रत ने कहीं बिस्तर नहीं बिछाया। इब्तिदा में तो नींद के ग़ल्बे में कभी कभी थोड़ा सा सो लेते थे लेकिन आख़िर में उसे भी तर्क कर दिया। फ़रमाते थे कि अगर कभी सो जाता हूँ तो कोई कोई तक्लीफ़ पहुंच जाती है।

    एक तरफ़ याद-ए-इलाही में ये इन्हिमाक था तो दूसरी तरफ़ मुरीदों की ता’लीम-ओ-तर्बियत ऐसी ख़ामोशी और चाबुक-दस्ती से होती थी कि सुब्हान-अल्लाह। मुल्तान की एक मस्जिद में उन्होंने किसी तालिब-ए-इ’ल्म को किताब-ए-नाफ़े’ का मुतालिआ’ करते हुए देखा और निगाह पड़ते ही माहिर जौहरी की तरह उस आबदार मोती को परख लिया। पास आकर बोले क्यों मियाँ ये किताब तुमको कुछ नफ़ा’ देगी? तालिब-ए-इ’ल्म ने जो बा’द में शुयूख़ुल-आ’लम हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर के नाम-ए-नामी से मशहूर हुए फ़ौरन क़दमों में सर रखकर कहा जी नहीं ।मुझे तो आपकी सआ’दत बख़्श कीमिया से फ़ाइदा पहुँचेगा। क़ुतुब साहिब बाबा साहिब को मुल्तान से दिल्ली ले आए मुरीद किया और मुजाहिदे कराने शुरूअ’ किए और इतने कराए कि पीर हज़रत ख़्वाजा साहिब अजमेरी को कहना पड़ा कि इस नौजवान को कब तक तपाओगे? क़ुतुब साहिब बाबा साहिब से पय-दर-पै रोज़े रखवाते मगर चिल्ला कराने से गुरज़ करते और कहते कि इससे शोहरत होती है हमारे ख़्वाज-गान का ये तरीक़ा नहीं है। एक दफ़ा’ हज़रत बाबा साहिब ने ता’वीज़ की इजाज़त मांगी और अ’र्ज़ की कि लोग मुझसे ता’वीज़ मांगते हैं।आपका क्या हुक्म है। फ़रमान हुआ कि मियाँ काम तुम्हारे हाथ में है मेरे हाथ में। ता’वीज़ ख़ुदा का नाम है। लिक्खो और दो।

    बात ब-ज़ाहिर मा’मूली सी नज़र आती है कि ता’वीज़ की इजाज़त तलब की गई और वो मिल गई।लेकिन जानने वाले जानते हैं कि इन तीन फ़िक़्रों में कि ‘काम तुम्हारे हाथ में है मेरे हाथ में ता’वीज़ ख़ुदा का नाम है लिक्खो और दो’ में क्या कुछ नहीं कह दिया गया। कूज़े को दरिया में बंद करने की रिवायत बहुत पुरानी है लेकिन ता’लीम-ओ-तर्बियत में कितने कम अल्फ़ाज़ से इतना ज़्यादा काम ले लेना भी सिर्फ़ हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब ही के हाँ नज़र आएगा।

    हज़रत मुरीदों के अह्वाल पर बराबर नज़र रखते थे और जब ज़रूरत होती एक-आध फ़िक़्रा फ़रमा दिया करते। एक दफ़ा’ हज़रत बाबा साहिब अजोधन में थे कि हज़रत शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी वहाँ तशरीफ़ ले गए और एक अनार निकाल कर रखा। बाबा साहिब रोज़े से थे। अनार तोड़ कर मेहमान को खिला दिया। एक दाना गिरा पड़ा रह गया था उसको पगड़ी में ब-तौर एक बुज़ुर्ग के तबर्रुक के बांध कर रख लिया और शाम को उससे इफ़्तार किया तो दिल में बड़ी सफ़ाई महसूस की और अफ़्सोस किया कि एक दाने से ज़्यादह क्यों रखा। कुछ अ’र्से बा’द दिल्ली आए तो ख़्वाजा क़ुतुब साहिब ने फ़रमाया कि मौलाना फ़रीदुद्दीन इतने क्यों लड़ते हो? पूरा अनार भी खा लेते तो क्या होता। हर अनार में एक दाना ही तो काम का होता है सो वो तुम्हारी क़िस्मत में था और मिल गया।

    हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब वस्त एशिया के मक़ाम-ए-ओश के रहने वाले थे। छोटे से थे कि वालिद-ए-माजिद का साया सर से उठ गया। दूसरे बड़े आदमियों की तरह हज़रत की ता’लीम-ओ-तर्बियत भी उनकी वालिदा माजिदा ने फ़रमाई। ‘होनिहार बिर्वा के चिकने चिकने पात’ बचपन में ख़ुद वालिदा से फ़र्माइश की कि मैं क़ुरआन-ए-मजीद पढ़ना चाहता हूँ। पड़ोस में एक हाफ़िज़ रहते थे। वालिदा तख़्ती और शीरीनी लेकर ख़ादिमा के साथ उनके पास भेजवा दिया। मगर क़ुदरत को कुछ और मंज़ूर था। घर से निकले ही थे कि एक बुज़ुर्ग सामने आए। उनको हाफ़िज़ जी के बजाए हज़रत अबू हफ़्स रहमतुल्लाहि अलै’ह के पास ले गए और ये कह कर चले गए कि साहिब-ज़ादे को क़ुरआन शरीफ़ पढ़ाएं। हज़रत अबू हफ़्स रहमतुल्लाहि अलै’ह ने क़ुतुब साहिब से पूछा कि ये जो बुज़ुर्ग तुम को ले कर आए थे उन्हें जानते हो? क़ुतुब साहिब ने जवाब दिया कि नहीं। मुझे तो ये रास्ते में मिले थे और हाफ़िज़ जी के बजाए आपके पास ले आए। हज़रत अबू हफ़्स रहमतुल्लाहि अलै’ह ने कहा कि ये ख़्वाजा ख़िज़्र अलै’हिस्सलवातु-व-स्सलाम थे। ग़र्ज़ ये कि हज़रत ने नाज़िरा क़ुरआन-ए-मजीद हज़रत अबू हफ़्स रहमतुल्लाहि अलै’ह से पढ़ा और उसके तीस साल बा’द आख़िर उ’म्र में क़ुरआन-ए-मजीद हिफ़्ज़ फ़रमाया।

    कहा जाता है कि हज़रत क़ुतुब साहिब अजमेरी ख़्वाजा रहमतुल्लाहि अलै’ह के साया-ए-आ’तिफ़त में रजब 522 हिज्री में आए थे और ब-मक़ाम-ए-बग़्दाद मस्जिद इमाम अबूल-लैस समरक़ंदी में मुरीद हुए थे। उस बैअ’त के वक़्त बुज़ुर्गान-ए-दीन का बड़ा यादगार मज्मा’ था। सियारुल-औलिया के मुसन्निफ़ ने हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहर्वदी रहमतुल्लाहि अ’लै’ह, हज़रत अहद किर्मानी हज़रत, शैख़ बुर्हानुद्दीन चिश्ती और हज़रत शैख़ मोहम्मद असफ़ाहानी जैसे बुज़ुर्गों के नाम गिनाए हैं।

    हज़रत ख़्वाजा साहिब अजमेरी ने हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाने के बा’द अजमेर को अपना मर्कज़ क़रार दिया था और दिल्ली जैसे अहम मक़ाम को हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब के हवाले कर दिया था। दिल्ली के ग़ुलाम सलातीन ख़ासकर सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश हज़रत क़ुतुब साहिब से बहुत अ’क़ीदत रखते थे। अल्तमश के बारे में तो यहाँ तक कहा जाता है कि वो सिर्फ़ हज़रत से बैअ’त था बल्कि उसने ख़िलाफ़त भी हासिल की थी। वो कभी आसमान को बे-वज़ू नहीं देखता था और रात को तहज्जुद के लिए उठता तो अपने किसी मुलाज़िम और ग़ुलाम को जगाता और ख़ुद ही उठकर वुज़ू कर लेता। इरादत और ख़िलाफ़त की इस रिवायत के बावजूद हज़रत ख़्वाजा साहिब के सवानिह-ए-हयात देखने से मा’लूम होता है कि हज़रत अपने शुयूख़ की सुन्नत के मुताबिक़ दरबार में जाना और बादशाह से मिलना ना-पसंद फ़रमाते थे।

    सिर्फ़ एक दफ़ा’ आपके बादशाह के पास जाने का ज़िक्र मिलता है और वो भी इस तरह कि उनके पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत ख़्वाजा साहिब अजमेरी के साहिब-ज़ादों की ज़मीन हाकिम-ए-अजमेर ने ज़ब्त कर ली थी। उस की बहाली के लिए हज़रत अल्तमश के पास तशरीफ़ ले गए। बादशाह को हज़रत की तशरीफ़-आवरी की ख़बर हुई तो नंगे पैर दौड़ता हुआ बाहर आया और बड़े ए’ज़ाज़ से अपने साथ अंदर ले गया। उस वक़्त इत्तिफ़ाक़ से अवध का हाकिम रुकनुद्दीन हलवाई भी मौजूद था। ना-वाक़फ़िय्यत की वजह से वो हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब से ऊंची जगह बैठ गया।बादशाह को ये चीज़ नागवार हुई तो हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब ने फ़रमाया कि आप नाराज़ हों। उनके नाम के साथ हलवाई लिखा जाता है और मेरे नाम के साथ काकी और हलवा काक के ऊपर ही रखकर खाया जाता है इसलिए हलवाई काकी से ऊंची जगह बैठ गया तो क्या मुज़ाइक़ा है। इस मुलाक़ात में बादशाह ने हज़रत ख़्वाजा साहिब अजमेरी के फ़र्ज़ंदान की ज़मीन की वापसी का फ़रमान लिखा और नज़्र भी गुज़रानी की।

    काक एक क़िस्म की छोटी सी गोल रोटी बिस्कुट की तरह होती है जिसके किनारे उभरे हुए होते हैं। हज़रत क़ुतुब साहिब के उ’र्स में आज भी ये रोटी तबर्रुकन तक़्सीम की जाती है। फ़क़्र-ओ-फ़ाक़े की ज़िंदगी में इस तरह की रोटी हज़रत को ग़ैब से मिला करती थी।इसलिए हज़रत की शोहरत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के लक़ब से हो गई।

    मौजूदा दरगाह के मक़ाम को हज़रत ने अपने मद्फ़न के लिए ख़ुद पसंद फ़रमाया था। अपनी ज़ाहिरी हयात में एक दफ़ा’ हज़रत ई’द की नमाज़ पढ़ने के बा’द घर तशरीफ़ ले जा रहे थे। जब उस मक़ाम पर पहुंचे जहाँ आज-कल हज़रत का मज़ार है तो यकायक खड़े हो गए और बहुत देर खड़े रहे। इंतिज़ार करने के बा’द लोगों ने अ’र्ज़ की कि आज ई’द का दिन है और घर पर मिलने वाले मुंतज़िर होंगे हुज़ूर घर तशरीफ़ ले चलें ।उस वक़्त हज़रत इस्तिग़राक़ से बाहर आए और फ़रमाया कि इस जगह से दिलों की ख़ुश्बू आती है। ये ज़मीन किसकी है। मालिक का नाम पता दर्याफ़्त कर के हज़रत ने उस ज़मीन को ख़रीद लिया और अपने मद्फ़न के लिए मुख़्तस फ़रमा दिया।

    14 रबीउ’ल-अव्वल233 हिज्री को हज़रत ने विसाल फ़रमाया था। विसाल के वक़्त उनके होने वाले जाँ-नशीन हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर रहमतुल्लाह अलै’ह दिल्ली में तशरीफ़ नहीं रखते थे। वह हांसी में थे। ख़्वाब में देखा कि पीर-ओ-मुर्शिद याद फ़रमाते हैं। दिल्ली पहुंचे तो हुज़ूर क़ुतुब साहिब का विसाल हो चुका था।बाबा साहिब ने अपने सर-ए-मुबारक पर मिट्टी की टोकरियाँ ला ला कर मज़ार-ए-मुबारक पर डालीं और उनको हमवार नहीं किया यूँही ऊंचा नीचा रहने दिया।

    अल्लाह बेहतर जानता है कि उसमें क्या मस्लिहत थी। उस वक़्त से आज तक हज़रत का मज़ार उसी शक्ल में है और इतना बड़ा है कि देखने वाले समझते हैं कि शायद इस जगह कई मज़ार होंगे। मुम्किन है हज़रत का अपनी ज़ाहिरी हयात में ये फ़रमाना कि यहाँ से दिलों की ख़ुश्बू आती है और बाबा साहिब का अस्ल मज़ार और उसके अतराफ़ मिट्टी डालना इसी वजह से हो कि उस जगह अल्लाह का कोई और महबूब बंदा पहले से आराम फ़रमा हो। हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ फ़रमाया करते थे कि जब हुज़ूर क़ुतुब साहिब और हज़रत क़ाज़ी हमीदुद्दीन साहिब के मज़ार के दर्मियान जो जगह है उस मक़ाम पर हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.) नमाज़ पढ़ा करते थे और इरशाद होता कि उस जगह बड़ी राहत है क्योंकि दोनों तरफ़ बादशाह लेटे हुए हैं।

    क़दीम तज़्किरों से अंदाज़ा होता है कि हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब ने एक से ज़्यादा निकाह फ़रमाए थे। एक अह्लिया मोहतरमा और उनके साहिब-ज़ादे का ज़िक्र उपर गुज़र चुका है। उन्हीं से एक फ़र्ज़ंद और हुए थे। उन्होंने उ’म्र-ए-तबीई’ पाई ता-हम हज़रत बाबा साहिब फ़रमाते थे कि उनके अहवाल अपने वालिद-ए-माजिद जैसे थे ।दूसरी अह्लिया मोहतरमा का ज़िक्र इस तरह मिलता है कि रईस नामी एक साहिब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब के पास आए और कहा कि मैंने रात को ख़्वाब में हुज़ूर रिसालत मआब सल्लल्लाहु अलै’हि-व-सल्लम की ज़ियारत की और हुज़ूर ने फ़रमाया कि क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार के पास जाना और कहना कि तुम रोज़ाना रात को जो तोहफ़ा हमें भेजा करते थे वो बराबर मिलता था लेकिन गुज़श्ता चंद रात से नहीं मिला है।ये सुनकर हुज़ूर ख़्वाजा क़ुतुब साहिब ने अपनी अह्लिया मोहतरमा को महर अदा कर के रुख़्सत फ़रमा दिया और कहा कि मैं रोज़ाना रात को तीन हज़ार मर्तबा दुरूद शरीफ़ पढ़ा करता था। निकाह करने की वजह से चंद रोज़ उस मा’मूल में नाग़ा हो गया।

    हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब के ख़ुलफ़ा में दो बुज़ुर्ग बहुत नामी हुए एक हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर और दूसरे हज़रत बदरुद्दीन ग़ज़नवी (रहि.)। हज़रत क़ाज़ी हमीदुद्दीन साहिब के बारे में भी रिवायत है कि उन्होंने हज़रत से ख़िलाफ़त पाई। ये भी कहा जाता है कि वो हज़रत के मुरीद भी थे और शायद उन्होंने हज़रत को पढ़ाया भी था। रिह्लत के वक़्त उन्होंने वसिय्यत की थी कि मुझे पीर-ओ-मुर्शिद के क़दमों में दफ़्न किया जाए। उनके लड़कों ने उस्ताद होने की वजह से शायद इस बात को अपने बाप की सुबकी समझा और ऊँचा चबूतरा बना कर वहाँ उन्हें दफ़्न किया। उसी रात को ख़्वाब में उन्होंने अपने लड़कों से कहा कि तुमने मुझे ऊँची जगह दफ़्न कर के अपने पीर के सामने शर्मिंदा कर दिया।

    ये बड़े लोगों की बड़ी बात थी।हम सबकी दुआ’ तो रहे कि अल्लाह तआ’ला ने हुज़ूर ख़्वाजा क़ुतुब का जो दामन आठ सौ बरस पहले हमारे हाथों में थमाया था हम उस को मज़बूत पकड़े रहें और उसी के सहारे अल्लाह-ओ-रसूल की ख़ुश्नूदी के आ’ला मक़्सद तक पहुँचें। चिश्तिया निज़ामिया सिल्सिले के मुजद्दिद हज़रत मौलाना फ़ख़रुद्दीन मुहिबुन्नबी उस ऊँची चौखट के मुहाफ़िज़ बने लेटे हैं। उन्होंने सिल्सिला-ए-आ’लिया को एक नई ज़िंदगी बख़्शी थी।

    हम उनका वास्ता और वसीला पकड़ते हैं। सिल्सिला ब-सिल्सिला हमारी इल्तिजा बारगाह-ए-इलाही तक पहुंचे और दोनों जहान में कामयाब और बा-मुराद बना दे।

    (ये मज़मून चंद साल क़ब्ल हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब साहिब के उ’र्स-ए-मुबारक में दरगाह शरीफ़ के रीसीवर जनाब क़मर महमूद साहिब की फ़र्माइश पर पढ़ा गया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : Monthly Nizam-ul-Mashaykh

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए