एक सोने वाले को जिसके हल्क़ में साँप घुस गया था एक तुर्क का मुक्के मारना- दफ़्तर-ए-दोउम
रोचक तथ्य
अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब
एक तुर्क घोड़े पर सवार चला आ रहा था, देखा एक सोते हुए शख़्स के हल्क़ में साँप घुस गया। सवार ने दूर से देखकर बहतेरा घोड़ा दौड़ाया कि सोने वाले को बचाए मगर मौक़ा’ ना मिला। कोई तदबीर समझ में ना आई तो उसने चंद घूँसे सोने वाले को मारे। सोने वाला गहरी नींद से यक दम उछल पड़ा, देखा कि एक सवार घूँसे पर घूँसा लगा रहा है। वो तुर्क ताबड़तोड़ घूँसे मारता रहा यहाँ तक कि सोने वाला ताब ना ला कर भाग खड़ा हुआ, आगे आगे वो और पीछे पीछे तुर्क एक दरख़्त के तले पहुंचे। वहां झड़े पड़े सेब बहुत पड़े थे।
तुर्क ने कहा कि ऐ शख़्स इन सेबों में से जितने खाए जाएं तू खा और ख़बरदार हरगिज़ कमी ना कर। तुर्क ने उस को इस क़दर सेब खिलाए कि सब खाया पिया उलट उलट कर मुँह से निकलने लगा। उसने तुर्क से चिल्ला कर कहा कि ऐ अमीर आख़िर मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था कि तू मेरी जान के दरपे हो गया। अगर तू मेरी जान ही का ख़्वाहाँ है तो तलवार के एक ही वार में ख़त्म कर दे। वो भी क्या बुरी घड़ी थी जब कि मैं तुझे दिखाई दिया। वो इसी तरह वावैला मचाता और बुरा भला कहता रहा। तुर्क ने फिर मुक्के लगाने शुरूअ’ किए। उस का सारा बदन दुखने लगा और थक कर चूर हो गया। लेकिन वो तुर्क उसी तरह पकड़ धकड़ और मार पीट करता रहा यहाँ तक कि सफ़रा के ग़लबे से उस को डाक लग गई और सारा खाया पिया निकलने लगा और साँप भी उसी क़ै के साथ बाहर निकल आया। जब उसने अपने पेट से साँप को बाहर निकलते देखा तो मारे ख़ौफ़ के थर-थर काँपने लगा और सारे जिस्म का दर्द जो घूँसे खाने से पैदा हो गया था यक-लख़्त जाता रहा। तुर्क के पांव पर गिर पड़ा और कहने लगा तू तो रहमत का फ़रिश्ता या मेरा वली, ने’मत-ए-ख़ुदावंद है। मैं तो मर चुका था तू ने मुझे ज़िंदगी-ए-ताज़ा बख़्शी। ऐ ख़ुदावंद, शहनशाह और अमीर अगर तू अस्ल हाल ज़रा भी मुझे बता देता तो मैं तेरे साथ ऐसी बकवास क्यों करता। मगर तूने तो अपनी चुप से मुझे बरहम कर दिया कि वज्ह बताए ब-ग़ैर मेरे सर पर घूँसे मारने लगा।ऐ नेको-कार मुझे मुआ’फ़ कर जो कुछ बे-औसानी में मेरे मुँह से निकल गया उसे बख़्श दे। तुर्क ने कहा कि अगर मैं उस का इशारा भी देता तो उसी वक़्त तेरा पित्ता पानी हो जाता और मारे ख़ौफ़ के तेरी जान ही आधी रह जाती। उस वक़्त ना तो तुझे इस क़दर सेब खाने की क़ुव्वत रहती और ना क़ै करने की नौबत आती, इसीलिए मैं तेरी फ़ुह्श-कलामी सुनता और सब्र करता रहा। सबब बताना मुनासिब ना था और तुझे छोड़ना मुझसे मुम्किन ना हुआ।
ऐ अ’ज़ीज़ आ’क़िलों की दुश्मनी भी ऐसी होती है कि उनका दिया हुआ ज़हर जान को नश्व-ओ-नुमा देता है।इस के बर-अ’क्स बे-वक़ूफ़ों की दोस्ती में सदमा और गुमराही हासिल होती है। चुनांचे मिसाल के तौर पर ये हिकायत सुनो।
- पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 73)
- प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)
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