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किसी चाहने वाले का अपने मतलूब के सामने ख़त पढ़ना- दफ़्तर-ए-सेउम

रूमी

किसी चाहने वाले का अपने मतलूब के सामने ख़त पढ़ना- दफ़्तर-ए-सेउम

रूमी

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    रोचक तथ्य

    ترجمہ: مرزا نظام شاہ لبیب

    एक शख़्स को मा’शूक़ ने अपने सामने बुला कर बिठाया। उसने जेब से ख़त निकाल कर मा’शूक़ के सामने पढ़ना शुरू किया। उस ख़त में बहुत से अश्आ’र, मा’शूक़ की मद्ह-ओ-सना, अपनी बे-ताबी-ओ-बे-क़रारी, सब अ’ज़ीज़ों दोस्तों से बे-ज़ारी, मा’शूक़ से दूरी और हिज्री की तकलीफ़, अपने पैग़ाम और पैग़ाम्बर का ज़िक्र पूरी तफ़्सील से था।

    ये इ’श्क़िया मज़्मून देर तक पढ़ता रहा। मा’शूक़ ने कहा कि अगर ये ख़त तू मुझे सुना रहा है तो वस्ल के मौ’क़ा पर अपनी उ’म्र ज़ाए’ कर रहा है। मैं तेरे सामने मौजूद हूँ और तू ख़त पढ़ने में मसरूफ़ है ये चाल ढाल आ’शिक़ों की नहीं। उसने कहा कि अगरचे तू मौजूद है लेकिन मैंने अगले साल जो तवज्जोह तेरी देख थी वो इस वक़्त नहीं है अब मैं चश्मा तो देख रहा हूँ मगर उस में पानी नहीं है, ऐसा मा’लूम होता है कि चश्मे तक पहुंचने का रास्ता डाकूओं ने रोक लिया है।मा’शूक़ ने कहा कि बस तो मैं तेरा मा’शूक़ नहीं। मैं बुलग़ार में हूँ और तेरी मुराद ख़ुरासान में है। तू मुझ पर आ’शिक़ है और मेरे हाल पर भी आ’शिक़ है दरां हालेकि हाल तेरे इख़्तियार में नहीं।

    पस फ़क़त मैं तेरा मक़सूद नहीं हूँ लिहाज़ा तेरा मा’शूक़ नहीं बल्कि मा’शूक़ का घर हूँ। हालाँकि इ’शक़ अस्ल चीज़ से होता है उस के संदूक़ से नहीं होता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 119)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

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