कहानी-37- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक फ़क़ीर ऐसी जगह पहुँचा जहाँ का हाकिम बहुत उदार था! उसके पास हमेशा कुछ बुज़ुर्ग रहा करते थे। वे तरह-तरह की हास्य और विनोद भरी बात किया करते। फ़क़ीर बहुत चलकर आया था। वह बेहद थका हुआ और भूखा था।
एक बुज़ुर्ग ने उससे हंसी में कहा, आप भी कुछ सुनाइए।, .
वह बोला, आप लोग सब बुज़ुर्ग है। मुझमें आपका सलीक़ा कहाँ है? मैं पढ़ा-लिखा भी नहीं हूँ, फिर भी अ’र्ज़ करता हूँ।
उसने जो शेर पढ़ा उसका भाव कुछ इस प्रकार था ।
मैं इस वक़्त दस्तरख़ान से इतना दूर हूँ , जितना अ’रब का पुरुष स्त्रियों के हम्माम से।
दोस्तो ने उसकी भूख की हालत देखी, तो उस पर रहम करके उसके लिए फ़ौरन दस्तरख़्वान बिछवा दिया।
मेज़बान ने कहा, ऐ यार! थोड़ी देर और ठहर जा। मेरे नौकर भुने हए कोफ़्ते तैयार कर रहे हैं।
फ़क़ीर ने सिर उठाया, हंसा और बोला “यदि मेरे दस्तरख़्वान पर कोफ़्ते नहीं हैं तो कोर्इ हर्ज नहीं।' थके हुए आदमी के लिए तो रूखी रोटी ही कोफ़्ता है।”
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