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कलाम
तुझ को जब तन्हा कभी पाता तो अज़ राह-ए-लिहाज़हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
हसरत मोहानी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
राहस्त राह-ए-इ'श्क़ कि हेचश किनारः नीस्तआँ-जा जुज़ अंगह जाँ ब-सिपारंद चार: नीस्त