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शाह नियाज़ बरैलवी ब-हैसिय्यत-ए-एक शाइ’र - मैकश अकबराबादी

मयकश अकबराबादी

शाह नियाज़ बरैलवी ब-हैसिय्यत-ए-एक शाइ’र - मैकश अकबराबादी

मयकश अकबराबादी

MORE BYमयकश अकबराबादी

    अक्सर अहल-ए-कमाल ऐसे होते हैं जिनमें चंद कमालात मुज्तमा’ हो जाते हैं मगर बा’ज़ कमाल इस दर्जा नुमायाँ होते हैं कि उनके दूसरे कमालात उन कमालात में मह्व हो कर रह जाते हैं ।मसलन हकीम मोमिन ख़ाँ का तिब्ब और नुजूम शाइ’री में दब कर रह गया, ज़ौक़ और मीर का इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल शाइ’री में गुम हो गया। मौलाना मोहम्मद अ’ली जौहर रहमतुल्लाहि अ’लैह की शाइ’री उनकी सियासत में यकसर खो गई। इसी तरह शाह नियाज़ रहमतुल्लाहि अ’लैह के तक़द्दुस और मज़हबी रहनुमाई की जिहत हिन्दुस्तान पर इतनी ग़ालिब आगई कि आपकी शाइ’राना हैसिय्यत उतनी नुमायाँ हो सकी जिसकी वो मुस्तहिक़ थी। यूँ तो कोई मह्फ़िल-ए-समाअ’ ऐसी नहीं है जिसमें आपका कलाम सनद-ए-क़ुबूल हासिल करता हो। हुज़ूर के लाखों से अफ़्ज़ूँ मुरीदीन-ओ-मो’तक़िदीन के ज़बानों पर अशआ’र वज़ीफ़ा की तरह जारी रहते हैं ।मगर ये सब चीज़ें उ’मूमन या अह्ल-ए-हाल तक मह्दूद रहीं और या अगर अ’वाम तक पहुँचीं भी तो उसी तक़द्दुस-ओ-तबर्रुक की हैसियत से।

    शाइ’री की बुनियाद मोहब्बत और ग़म पर है। मोहब्बत भी अस्ल में ग़म ही है। गम हो या ख़ुशी, ग़ुस्सा हो या रह्म,ये जज़्बात सब ही इन्सानों पर तारी होते हैं। लेकिन जिस तरह बारिश के पानी से कहीं फूल उगते हैं और कहीं कांटे, उसी तरह ये कैफ़ियात भी एक आ’मी इन्सान और एक बुलंद-पाया मुफ़क्किर में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के मज़ाहिर पैदा करती हैं। शाइ’री भी उन्हीं कैफ़ियात का एक मज़हर है जो दिल की कुछ ना-तमाम बातें ज़बान-ओ-क़लम के ज़रिया’ नुमायाँ कर देती है। इसलिए हर शाइ’र के कलाम के नक़्द के वक़्त उस की शख़्सी ख़ुसूसियात और माहौल भी नज़र में रखना ज़रूरी है।

    विदेशी सामराज्य ने सिर्फ़ हमारी हुकूमत और ताक़त को ग़ारत किया है बल्कि हमारे तमद्दुन, हमारी मुआ’शरत और हमारी मश्रिक़िय्यत को भी हमसे सल्ब कर लिया है इसलिए रूहानियत भी जो मश्रिक़ की ख़ुसूसिय्यत थी फ़ना होती जा रही है। सिर्फ़ फ़ना हो रही है बल्कि अब उसके वजूद से इन्कार करना फ़ैशन और अ’क़ीदे में दाख़िल हो गया है। और इसलिए अगर ये नज़रिया क़ायम हो रहा है कि मोहब्बत की बिना तअ’ल्लुक़ात या रुजहानात-ए-जिन्सी पर है तो कोई बई’द नहीं। इस वक़्त इस नज़रिया पर नक़्द करना मंज़ूर नहीं है ता हम ये बयान करना ज़रूरी है कि मश्रिक़िय्यत की बुनियाद रूहानियत पर है और मोहब्बत जिन्सी तअ’ल्लुक़ात पर है और मोहब्बत जिन्सी तअ’ल्लुक़ात से बाला-ओ-बरतर कोई शय ज़रूर है। अंदाज़-ए-बयान सलासत-ओ-रवानी, जो शे’र को दिमाग़ से दिल तक पहुँचाने के लिए है एक ऐसा नुक़्ता-ए-इत्तिसाल है जहाँ से शे’र की रिफ़्अ’त और उस का ज़ेहनी उं’सर रूहानिय्यत की हद में दाख़िल हो जाता है ।इस की अहमिय्यत उस वक़्त महसूस होती है जब एक पाबंद-ए-आब-ओ-गिल इन्सान भी एक लम्हे के लिए उस आ’लम में पहुँच जाता है जहाँ शुऊ’र-ए-हयात जमालियात-ओ-इलाहियात की मौजों पर रक़्स करता हुआ नज़र आता है।

    चूँकि शाइ’री का मक़सद ये है कि हम अपने बातिन में उन वारदात को नश्व-ओ-नुमा दें जिनको शाइ’र कलिमात-ए-मौज़ूँ में पेश करता है ।इसलिए ये कह सकते हैं कि शाइ’री का काम दिल की आँखें खोलना है। और ये ज़ाहिर है कि जो दूसरों की बातिनी नज़र को तेज़ कर सकता है ख़ुद उस की बसीरत किस क़दर शदीद होगी। यही वजह है कि हमेशा बड़े शो’रा वही होते हैं जिन्हें फ़ित्रत-ए-हयात और इन्सानी हक़ीक़त के मुतअ’ल्लिक़ वसीअ’ मुफ़स्सिराना और इर्तिक़ाई क़ुव्वतें बख़्शी गई हैं।

    बुलंद दर्जे की शाइ’री उस वक़्त मा’रज़-ए-वजूद में आई है जब इन्सानी दिमाग़ हयात के उन पोशीदा जमालियात का मुशाहिदा करता है जो हमारे वजूद-ए-तबई’ के पस-ए-पुश्त मख़्फ़ी रहते हैं। लेकिन शाइ’री का एक मक़ाम इस से बुलंद और भी है ।वो मक़ाम उस वक़्त हासिल होता है जब इन्सानी निगाह निहायत अ’मीक़ हो जाती है और अश्या-ए-आ’लम की रूह उस के सामने आकर जल्वा-गर हो जाती है। शाइ’र का अ’ज़ीम-तरीन क़ल्ब काएनात की रूह को मुकम्मल तौर से अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और ज़माना उस के सामने असरार के बयान कर देने पर तुला हुआ नज़र आता है। यहाँ जमालियात से ज़्यादा हक़ाएक़ पर शाइ’र की नज़र होती है जो एक मुबस्सिर अव्वलीन नज़र में मा’लूम कर सकता है।

    तसव्वुफ़ या हक़ीक़त शनासी से हमारा मश्रिक़ी अदब माला-माल है हत्ता कि वो लोग जो तसव्वुफ़ से बिल्कुल ना-आश्ना हैं शाइ’री की दुनिया में बड़े सूफ़ी मा’लूम होते हैं। ये महज़ उस तक़्लीद और माहौल का अ’सर है जो तसव्वुफ़ और शाइ’री से मिलकर हुआ है। इसलिए आ’म तौर से उर्दू और ख़ुसूसन फ़ारसी शाइ’री को समझने के लिए जरूरी है कि उसूल-ए-तसव्वुफ़ जैसी अ’ज़ीमुल-मर्तबत शय को बयान किया जाए। ता-हम शाइ’राना तसव्वुफ़ को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम मा’लूम कर लें कि अहल-ए-तसव़्वुफ़ के मज़हब में तमाम मौजूदात ब-ज़ाहिर वहदत हैं। हक़ीक़त एक से ज़्यादा नहीं है जो मुख़्तलिफ़ सूरतों में ज़ाहिर है। ये सूरतें उस हक़ीक़त का मज़हर हैं ।उन मज़ाहिर को मजाज़ से ता’बीर करते हैं।

    ईं जुमल: ज़माइर रा मर्जा’ तुई जानाँ

    ता’बीर ज़े-तुस्त ईँ कि हर माय:-ओ-हर अद्ना

    -(नियाज़ बेनियाज़ )

    या ग़ैरिय्यत महज़ वह्मी है जिसका हक़ीक़त में कोई वजूद वाहिमे के बाहर नहीं है।

    अपना ही कुछ तसर्रुफ़-ए-औहाम है कि हम

    चेहरे पे हक़ के पाते हैं पर्दा नक़ाब का

    (हुज़ूर नियाज़)

    इन मुक़द्दमात को ज़ेहन-नशीन कर लेने के बा’द अब फ़ारसी के मशाहीर शो’रा के कलाम के सामने हज़रत का कलाम रख कर मुलाहज़ा कीजिए। ये मौक़ा’ नक़्द का नहीं है और मुतक़द्दिमीन से मुतअख़्ख़िरीन का मुवाज़ना किसी तरह दुरुस्त कहा जा सकता है। ताहम इस तरीक़े से यही जो कुछ हासिल किया जा सकता है उस से महरूम क्यूँ रहें। वाक़िआ’ ये है कि आ’शिक़ाना रिन्दी-ओ-सर-मस्ती जो ग़ज़ल की जान है ‘हाफ़िज़’ के यहाँ अपने मुंतहा-ए-उ’रूज पर पाई जाती है। और इलाहियात-ओ-तसव्वुफ़ की जो शान हज़रत मग़्रिबी के यहाँ है उस की नज़ीर दूसरे शो’रा में मिलना मुश्किल है। इसलिए सुतूर-ए-ज़ैल में ज़्यादा-तर उन दोनों बुज़ुर्गों का कलाम पेश किया जाएगा। उर्दू शाइ’री में चूँकि तसव्वुफ़ का कोई नमूना बावजूद इतनी तरक़्क़ी के भी ऐसा मौजूद नहीं है जिसको हुज़ूर नियाज़ रहमतुल्लाहि अ’लैह के कलाम के साथ पेश किया जा सके, इसलिए आपके उर्दू कलाम के इंतख़ाब पर ही इक्तिफ़ा किया गया है।

    हज़रत हाफ़िज़ रहमतुल्लाहि अ’लैह

    सबा ज़े मंज़िल-ए-जानां गुज़र दरेग़ म-दार

    व़ज़ू-ब-आ’शिक़-ए-मिस्कीं ख़बर दरेग़ म-दार

    जहान-ओ-हर चे दरू हस्त सह्ल-ओ-मुख़्तसरस्त

    ज़े अहल-ए-मा’रिफ़त ईं मुख़्तसर दरेग़ म-दार

    मुराद-ए-मा हमः मौक़ूफ़ यक करिश्मा-ए-तुस्त

    ज़े दोस्तान-ए-क़दीम ईं क़दर दरेग़ म-दार

    ब-शुक्र आँ-कि शगुफ़्ती ब-काम-ए-दिल गुल

    नसीम-ए-वस्ल ज़े-मुर्ग़-ए-सहर दरेग़ म-दार

    मकारिम-ए-तौब: आफ़ाक़ मी-बुरद शाइ’र

    अज़ू वज़ीफ़:-ओ-ज़ाद-ए-सफ़र दरेग़ म-दार

    ग़ुबार-ए-ग़म ब-रवद-ओ-हाल बिह शवद ‘हाफ़िज़’

    तू आब-ए-दीद: अज़ीं रहगुज़र दरेग़ म-दार

    हुज़ूर नियाज़ रहमतुल्लाहि अ’लैह

    सितम-गरा सर-ए-ना’शम गुज़र दरेग़ म-दार

    बनाज़-ए-कुश्त:-ए-ख़ुद यक नज़र दरेग़ म-दार

    फ़सानः इस्त मुतव्वल ततावुल-ए-ज़ुल्फ़्त

    समाअ’-ए-मुख़्तसर ज़ाँ समर दरेग़ म-दार

    अगर्चे सैद-ए-ज़बूनम व-लेकिन सय्याद

    गिरफ़्तनम पय-ए-सैद-ए-दिगर दरेग़ म-दार

    नमूद बे-ख़बर अज़ ख़्वेश्तन मरा ख़बरत

    ख़बर ज़े-हाल-ए-मन-ए-बे-ख़बर दरेग़ म-दार

    शकीब-ओ-ताब-ओ-तवाँ हमरह-ए-दिलम रफ़्तस्त

    तू नीज़ बे-दिल-ओ-जानम सफ़र दरेग़ म-दार

    ‘नियाज़’ दारी अगर आरज़ू-ए-दौलत-ए-फ़क़्र

    ज़े-सर्फ़-ए-मा-हज़रत ता ब-सर दरेग़ म-दार

    –हाफ़िज़

    रोज़ः यकसू शुद-ओ-ई’द आमद-ओ-दिलहा बर्ख़ास्त

    मय ब-मय-ख़ानः ब-जोश आमद-ओ-मय बायद ख़्वास्त

    नौबत-ए-ज़ुह्द फ़रोशाँ गराँ-जाँ ब-गुज़श्त

    वक़्त-ए-शादी-ओ-तरब कर्दन रिंदां पैदास्त

    गर्चे मा-बंदगान-ए-पादशहेम

    पादशाहान-ए-मुल्क-ए-सुबह्गाहेम

    नियाज़

    ई’दस्त साक़िया दर-ए-मय-ख़ानः बाज़ कुन

    पैमान-ए-तौबः ब-शिकन-ओ-पैमान: साज़ कुन

    हंगाम-ए-ज़ुह्द-ओ-तौबः-ओ-तक़्वा गुज़श्त-ओ-रफ़्त

    दौर-ए-हक़ीक़तस्त वदाअ’-ए-मजाज़ कुन

    ब-बातिन नाज़ दर ज़ाहिर ‘नियाज़म’

    ब-मा’नी ख़्वाज: दर सूरत ग़ुलामे

    मग़्रिबी

    ख़ूर्शीद-ए-रुख़त चू गश्त पैदा

    ज़र्रात-ए-दो कौन शुद हुवैदा

    महर-ए-रुख़-ए-तू चूँ सायः अंदाख़्त

    ज़ां साय: पदीद गश्त अश्या

    दरिया-ए-वजूद मौज-ज़न शुद

    मौजे ब-फ़िगन्द सू-ए-सहरा

    ईँ जुमल: चे बुवद ऐ’न-ए-आँ मौज

    वाँ मौज चेः बुवद ऐ’न-ए-दरिया

    हर चीज़ कि हस्त ऐ’न-ए-कुल अस्त

    पस कुल चे बुवद सरासर अज्ज़ा

    अज्ज़ा चे बुवद मज़ाहिर-ए-कुल

    अश्या चे बुवद ज़िलाल-ए-अस्मा

    अस्मा चे बुवद ज़ुहूर-ए-ख़ुर्शीद

    ख़ुर्शीद जमाल-ए-ज़ात-ए-वाला

    नियाज़

    यार-ए-मन बा-कमाल-ए-रा’नाई

    ख़ुद तमाशा-ओ-ख़ुद तमाशाई

    शुद चू हुब्ब-ए-नज़ार: दामन-गीर

    गश्त मुतलक़ ब-दाम-ए-क़ैद असीर

    अज़ तक़ाज़ा-ए-हुब्ब-ए-जल्वा-गरी

    आमद अंदर हिसार-ए-शीशः परी

    ख़ुद आमद ब-शक्ल ईँ अकवान

    हसब-ए-दर्ख़्वास्त-ए-हज़रत-ए-आ’यान

    हस्त आ’लम मर आतिश

    कंदर ज़ाहिरस्त आतिश

    तुर्फ़:-तर ईँ कि राई-ओ-मिर्आत

    जुज़ यके ने चे गोयमत हैहात

    पस हम साजिदस्त-ओ-हम-मस्जूद

    नीस्त दर दह्र गैर-ए-ऊ मौजूद

    मग़रिबी

    यार-ए-माहिर साअ’ते आरद ब-बाज़ारे दिगर

    ता-बुवद हुस्न-ओ-जमालश रा ख़रीदारे दिगर

    किस्वत-ए-दीगर ब-पोशद जल्व:-ए-दीगर देहद

    मज़्हर-ए-दीगर नुमायद बहर-ए-इज़्हारे दिगर

    कार-ए-ऊ इ’श्क़स्त बा-ख़ुद इ’श्क़-बाज़ी मी-कुनद

    नीस्तश जुज़ इ’शक़ बा-ख़ुद बाख़्तन कारे दिगर

    अज़ ज़बान-ए-जुमल:-ए-ज़र्रात-ए-आ’लम मग़्रिबी

    मी-कुनद बर महर-ए-रुयश ताज़ः इक़रारे दिगर

    नियाज़ बेनियाज़

    दारद दिल-ए-दीवानःअम सौदा-ए-लैला-ए-दिगर

    मजनून-ए-तब्अ’-ए-वहशियम ब-गिर्यद सहरा-ए-दिगर

    दर हर नज़र ब-नुमायदम तर्ज़-ए-दिगर हुस्न-ए-बुतम

    हर लह्ज़: बीनम जल्वाए हर-दम तमाशा-ए-दिगर

    दर हर शिकस्त-ओ-रेख़्तन मुस्तहकमी शुद हासिलम

    दर हर बर उफ़्तादन ज़े-पा दर याफ़्तम पा-ए-दिगर

    दर हालत-ए-नज़्अ’-ए-नियाज़ यार जाँ बख़्शम बिया

    बेहतर न-बाशद ज़ीं ई’लाज ईँ दम मुदावा-ए-दिगर

    अहमद जाम

    जमालुल्लाह मी-बीनम ब-हर सूए ब-हर रूए

    सलामुल्लाह मी-आयद ज़े-हर सूए ज़े हर कूए

    कलामुल्लाह मी-ख़्वानम ब-हर हर्फ़े ब-हर ख़त्ते

    सिफ़ातुल्लाह मी-दानम ज़े हर रूए ज़े हर मूए

    मरा अहमद हमी-गोयद मकुन सिर्र-ए-ख़ुदा पैदा

    चे मी-गोयम कि मी-आयद नसीम-ए-ऊ ज़े हर सूए

    नियाज़ बेनियाज़

    जल्वागह-ए-रूयत हर वजहे-ओ-हर रूए

    राह-ए-तू-ओ-कूए-ए-तू हर राहे-ओ-हर कूए

    क़िब्ल:-ए-ईमानम वय जान-ए-दिल-ओ-जानम

    रू सू-ए-तू गर्दानम हर तरफ़े-ओ-हर सूए

    बा-आँ कि मुबर्रा अज़ वस्म:-ए-रंग-ओ-बू

    रंग-ए-तू-ओ-बू-ए-तू हर रंगे-ओ-हर बूए

    अंदर-दिल-ए-हर क़तरा दरियास्त ब-मौज-अंदर

    ख़ुद बह्र-ए-मुहीतस्त ईँ हर नहरे-ओ-हर जूए

    ईँ जुमल: ज़माइर रा मर्जा’ तूई जानाँ

    ता’बीर ज़े-तुस्त ईनक हर माहे-ओ-हर रूए

    अंदर रह-ए-इ’श्क़-ए-तू रफ़्तस्त ‘नियाज़’ अज़ ख़ुद

    अज़ तुस्त कज़ हस्त ईँ हर हाए-ओ-हर हूए

    मौलाना शहीद हुज़ूर नियाज़ बेनियाज़ से काफ़ी मुतअख़्खिर हैं। उन्होंने हज़रत की ग़ज़ल पर ग़ज़ल लिखी है। मुतअख़्खिर को बहुत सी सहूलतें होती हैं ।मगर मुलाहज़ा हो किस तरह ना-कामयाब रहे हैं। इल्हामी कलाम और इन्सानी तब्अ’-आज़माई का फ़र्क़ कितना नुमायाँ है।

    मौलाना शहीद

    दिल-ओ-जिगर नज़र-ओ-दीदः जान-ओ-तन हमःऊस्त

    हर आँचे हस्त दरीं खिर्क़:-ए-कुह्न हमः ऊस्त

    सबा-ओ-निक्हत-ओ-नस्रीन-ओ-नस्तरन हमः ऊस्त

    बहार-ओ-सब्ज़:-ओ-गुल गुंच:-ओ-चमन हमः ऊस्त

    अ’ज़ाब चीस्त बगो ज़ाहिदा मुअ’ज़्ज़िब कीस्त

    बहिश्त-ओ-दोज़ख़-ओ-हम मुर्द:-ए-कफ़न हमः ऊस्त

    ब-रंग-ए-बाद-ए-सहर बा-शमीम-ए-ऊ हमः मन

    चू बू-ए-यूसुफ़-ए-कनआँ’ ब-पैरहन हमः ऊस्त

    शहीद नीस्त कि गुफ़्तार ख़ेज़द अज़ लब-ए-ऊ

    ज़बान-ओ-नुत्क़-ओ-बयाँ मा’नी-ओ-सुख़न हमः ऊस्त

    हज़रत नियाज़ बेनियाज़

    कसे कि सिर्र-ए-निहाँ अस्त दर अ’लन हमः ऊस्त

    उ’रूस-ए-ख़ल्वत-ए-वह्म शम्अ’-ए-अंजुमन हमः ऊस्त

    ब-मुस्हफ़-ए-रुख़-ए-ख़ूबाँ हमीं नमूद रक़म

    कि ख़त्त-ओ-ख़ाल-ओ-रुख़-ओ-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन हमः ऊस्त

    शुनीदः-अम ब-सनम-ख़ानः अज़ ज़बान-ए-सनम

    सनम-परस्त-ओ-सनम हम-सनम-शिकन हमः ऊस्त

    शुनीद-ए-मन हमः हक़ अस्त दीद-ए-मन हमः हक़

    कि गोश-ए-मन हमः हस्त-ओ-चश्म-ए-मन हमः ऊस्त

    ‘नियाज़’ नीस्त कि मी-गोयद ईँ कलाम ईँ दम

    क़सम ब-हक़ कि दरीं वक़्त दर सुख़न हमः ऊस्त

    ये सिल्सिला बा-वजूद बेहद इख़्तिसार के भी तवील होता जा रहा है ।इसलिए सिर्फ़ हज़रत के चंद शे’र फ़ारसी और चंद उर्दू के नक़्ल कर के इस मज़्मून को ख़त्म किया जाता है।

    रफ़्तम अंदर तह-ए-ख़ाक उन्स-ए-बुतानम बाक़ीस्त

    इ’श्क़-ए-जानम ब-रबूद आफ़त-ए-जानम बाक़ीस्त

    इमशब आनस्त कि ज़द हलक़:-ए-जां बुर्द ज़े मा

    नीज़ नूर-ए-ख़ुदा कर्द तुलूअ’ अज़ बर-ए-मा

    नज़र-ए-हज़रत-ए-इ’श्क़स्त ब-सू-ए-फ़ुक़रा

    कि निहाद अफ़्सर-ए-शाही-ए-जहाँ बर सर-ए-मा

    दर राह-ए-हक़-अंदेशी मी-पोयम-ओ-मी रक़्सम

    दस्त अज़ ख़ुदी-ओ-ख़्वेशी मी-शोयम-ओ-मी-रक़्सम

    जामे ज़े मय-ए-बाक़ी अज़ दस्त-ए-ख़ुश-ए-साक़ी

    ब-कस्रत-ए-मश्शाक़ी मी-जोयम-ओ-मी-रक़्सम

    दर शौक़-ए-जमाल-ए-ऊ यक दिल शुदम-ओ-यक-रू

    ला-वाहिदा-इल्ला-हू मी-गोयम-ओ-मी-रक़्सम

    चूँ रफ़्त ‘नियाज़’ अज़ ख़ुद-ओ-अज़ कौन-ओ-मकां बर शुद

    ज़द ना’रः कि मन बे-ख़ुद ख़ुद ऊयम-ओ-मी-रक़स्म

    मनम पर्वानः-ओ-हम-शम्अ’-ओ-हम-सोज़

    ब-गिर्द-ए-ग़ैर गर्दीदन न-दारम

    निगः-आसा रवम बर औज-ए-अफ़्लाक

    ज़े जा-ए-ख़्वेश जुंबीदन न-दारम

    चूँ यार ब-बज़्म आमदः पोशीदः नक़ाबम

    पस कस न-बुवद हाजिब-ए-ऊ ग़ैर-ए-हिजाबम

    हर्फ़ीस्त जहाँ अज़ वरक़-ए-दफ़्तर-ए-इ’ल्म

    मन नुस्ख़:-ए-जामे’-ए-अ’जबे तुर्फ़ा किताबम

    बा हमः ख़ुद ब-रवेम आ’शिक़-ए-रू-ए-कीस्तम

    रस्त: ज़े-दाम-ए-जिस्म-ओ-जाँ बस्त:-ए-मू-ए-कीस्तम

    जल्वः-गरम ब-हर जिहत ने’मत-ए-मनस्त हर सिफ़त

    सजद: कुनाँ ब-जान-ओ-दिल जानिब-ओ-सू-ए-कीस्तम

    मन पाक-बाज़-ए-इ’श्क़म ज़ौक़-ए-फ़ना चीदः

    आहू-ए-दश्त-ए-हूयम अज़ मा-सिवा रमीदः

    मन नूर-ए-ज़ात-ए-हक़्क़्म साहिब-ए-बसीरत

    दर सूरतम अगर्चे अज़ ख़ाक आफ़रीदः

    अ’क्स नुमा-ए-तू हर ज़र्र: चू आईनः

    अज़ दौलत-ए-दीदारत हर दीदः चू गंजीनः

    सज़द आँ कि दम ज़नम मन ज़े-कमाल-ए-किब्रियाई

    कि सिवा-ए-हक़ न-बीनम ब-वजूद-ए-फ़ी-क़बाई

    हम दिल-बरी-ओ-नाज़स्त कि ब-सूरत-ए-नियाज़स्त

    चे नियाज़ शान-ए-ख़ासस्त ज़े शुयून-ए-दिल-रुबाई

    अज़ ख़ल्क़ जुदा हस्ती-ओ-हम दर हमः आई

    अज़ जुमल: मी-रानी-ओ-दर जुमल: दर-आई

    बर वह्दत-ए-ज़ातस्त अ’र्ज़-ए-कसरत-ए-शानत

    यक शान-ए-तू ख़ल्क़स्त दिगर शान-ए-ख़ुदाई

    ब-हर मश्रब कि बीनी नीस्त जुज़ मन

    ज़े-मन ब-शिनो ब-हर मिल्लत कलामे

    ब-बातिन नाज़ दर ज़ाहिर नियाज़म

    ब-मा’नी ख़्वाज: दर सूरत ग़ुलामे

    उर्दू

    गर कौन-ओ-मकां मज़्हर-ए-नैरंग होता

    हर-आन में उस का ये नया ढंग होता

    इमकान से बाहर है तिरी कुन्ह का पाना

    वर्ना दिल-ए-आगाह मिरा तँग होता

    अपना ही कुछ तसर्रुफ़-ए-औहाम है कि हम

    चेहरे पे हक़ के पाते हैं पर्दा नक़ाब का

    आँखें मुंदी हुई हैं तो फ़िर दिन भी रात है

    इस में क़ुसूर क्या है भला आफ़्ताब का

    अपना हिजाब आप है तू मियाँ नियाज़

    उठने में तेरे होता है उठना नक़ाब का

    नहीं है धोका कुछ इस में दिल कि है धोका तिलिस्म-ए-आ’लम

    जो कुछ सुना था सो है फ़साना जो कुछ कि देखा सो ख़्वाब देखा

    कहाँ ये इ’श्क़ का मरना कहाँ वो मौत सर पड़ना

    यहाँ अब रूह-ए-क़ुदसी हूँ वहाँ ज़ेर-ए-ज़मीं सड़ता

    ये रोना शम्अ’ को उसके लिए ता-सुब्ह क्यूँ पड़ता

    वो जो नक़्श-ए-पा की तरह रही थी नमूद अपने वजूद की

    सो कशिश ने दामन-ए-नाज़ की उसे भी ज़मीं से मिटा दिया

    मा’मूर हो रहा है आ’लम में नूर तेरा

    अज़ माह ता ब-माही सब है ज़ुहूर तेरा

    जब जी में ये समाई जो कुछ कि है सो तू है

    फ़िर दिल से दूर कब हो क़ुर्ब-ओ-हुज़ूर तेरा

    गर हर्फ़-ए-बे-नियाज़ी सरज़द नियाज़ से हो

    पुत्ले में ख़ाक के है प्यारे ग़ुरूर तेरा

    दिल कहीं जाइयो ज़िन्हार देखना

    अपने ही बीच यार का दीदार देखना

    हर्गिज़ दवा कीजियो इस ग़म की नियाज़

    सब राहतों से ग़म को मज़ेदार देखना

    समंद-ए-नाज़ की जब बाग उसने दी टुक छोड़

    वहीं ठिठक रही बुर्हान-ए-सुलम्मी मुँह मोड़

    हमारे शीशा-ए-दिल को जो तोड़ता है तोड़

    पर इस को फेंकियो मत अपनी रह-गुज़र को छोड़

    बुर्हान-ए-सुल्लमी एक फ़ल्सफ़ियाना दलील का नाम है जो तसल्सुल के इब्ताल में पेश की जाती है।

    सोज़-ए-दिल से फुंक गया सब रख़्त-ए-तन

    अब है दस्त-ए-आस्तीं दामान-ए-अशक

    थीं ये आँखें मा’दन-ए-नूर-ए-बसर

    आज-कल कुछ हो गई हैं कान-ए-अशक

    हैं दीदा-ए-बीना में हम सारे कम-ओ-बिस्यार एक

    कस्रत-ए-नुमायाँ उतनी हो जितना करे तकरार एक

    किस प्यार की निगाह का दिल में लगा ख़दंग

    मर्ग-ओ-हयात अपनी हुई दोनों एक नंग

    क्या तुर्फ़ा इज्तिमा-ए’-नक़ीफ़ैन है हकीम

    आँखों के वो लड़ाने में रखता है सुल्ह-ओ-जंग

    सब गिर चुकी है अपनी हरीम-ए-तअ’ल्लुक़ात

    मेहर-ए-बुताँ की बाक़ी है कुछ-कुछ मगर उलंग

    दरिया-ए-दिल से उठती है मौज-ए-उलूहियत

    रहती है जी में शोर-ए-अन्नल्लाह की उमंग

    वो पारसा हैं दौर में तेरे ख़राब-ओ-मस्त

    मस्ती के नाम से जिन्हें आता है आ’र-ओ-नंग

    क्या ही फूली बहार आँखों में

    है जहाँ लाला-ज़ार आँखों में

    कुछ उड़ी जाती है निगाह अपनी

    किसने पकड़ा क़रार आँखों में

    छोड़ के सीना शायद आता है

    अब दिल-ए-बेक़रार आँखों में

    कुछ नहीं खुलता मुझे मैं कौन हूँ

    सूरत-ए-हैरत हूँ या शक्ल-ए-जुनूँ

    जिसने पहचाना है अपने आपको

    है नियाज़ अपने क़दम पर सर-निगूं

    मुल्क-ए-ख़ुदा में यारो आबाद हैं तो हम हैं

    ता’मीर-ए-दो-जहाँ की बुनियाद हैं तो हम हैं

    देखा परख परख कर आख़िर नज़र चढ़ा ये

    गर नक़्द हैं तो हम हैं नक़्क़ाद हैं तो हम हैं

    रवाँ आँखों से है सैलाब-ए-गुल-गूं

    इलाही चश्म है या चश्मा-ए-ख़ूँ

    बे-सर-ओ-पाई से उ’श्शाक़ को ख़तरा क्या है

    असर-ए-इ’श्क़ है ये गर्दिश-ए-अय्याम नहीं

    आ’लम-ए-इ’श्क़ की दुनिया ही निराली देखी

    सहर-ओ-शाम वहाँ ये सहर-ओ-शाम नहीं

    बुल-हवस पाँव रखियो कभी इस के बीच

    कूचा-ए-इ’श्क़ है ये गर्दिश-ए-अय्याम नहीं

    नेस्ती हस्ती है यारो और हस्ती कुछ नहीं

    बे-ख़ुदी मस्ती है यारो और मस्ती कुछ नहीं

    ला-मकाँ की मंजिलत पाता है कब कौन-ओ-मकाँ

    ’’हू” के वीराने के आगे ”है’ की बस्ती कुछ नहीं

    ये जो कुछ होना जिसे कहते हैं पस्ती है मियाँ

    फ़क़्र में पस्ती यही है और पस्ती कुछ नहीं

    बंदगी और हक़-परस्ती कुछ होता है नियाज़

    कुछ होने से सिवा और हक़-परस्ती कुछ नहीं

    ग़म ने तो हम-दम बिगाड़ दी मेरी सब हैसियत

    मानूँ तुझे मैं अगर ले मुझे पहचान तू

    पूछे है हर इक से किसका है आ’शिक़ नियाज़

    तुझको नहीं है ख़बर ऐसा है अंजान तू

    अफ़्साना मेरे दर्द का उस यार से कह दो

    फुर्क़त की मुसीबत को दिल-ए-आज़ार से कह दो

    झुकता नहीं ये दिल तरफ़-ए-क़िब्ला-ए-आ’लम

    मेहराब-ए-ग़म-ए-अबरू-ए-दिल-दार से कह दो

    मैं इ’श्क़ की मिल्लत में हूँ शैख़-ओ-बरहमन

    जा इ’श्क़ मिरा सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार से कह दो

    छोड़ो मुझे बे-ख़ुद मिरा आराम यही है

    बे-नाम-ओ-निशाँ रहने दो बस नाम यही है

    काफ़िर हूँ जो मैं अपने तईं जानूं कि मैं हूँ

    जो कुछ है सो तू है मिरा इस्लाम यही है

    मुझे बे-ख़ुदी ये तूने भली चाशनी चखाई

    किसी आरज़ू की दिल में नहीं अब रही समाई

    हज़र है ने ख़तर है रजा है ने दुआ’ है

    ख़्याल-ए-बंदगी है तमन्नाई-ए-खुदाई

    मक़ाम-ए-गुफ़्तुगू है महल्ल-ए-जुस्तुजू है

    वहाँ हवास पहुंचें ख़िरद को है रसाई

    मकीं है मकाँ है ज़मीं है ज़माँ है

    दिल-ए-बे-नवा ने मेरे वहाँ छावनी है छाई

    विसाल है हिज्राँ सुरूर है ग़म है

    जिसे कहिए ख़्वाब-ए-ग़फ़्लत सो वो नींद हमको आई

    यहाँ मैं रहा हूँ जब तक तो सुख़न नियाज़ बोलूँ

    सुनोगे ज़बान-ए-नय से वही जो कहेगा नाई

    बहुत से क़ाबिल-ए-इंतिख़ाब अश्आ’र तवालत की वजह से छोड़ दिए गए हैं फिर भी इंतिख़ाब काफ़ी तवील हो गया। अ’रबी और हिंदी का काम इस के अ’लावा है।

    एक मुहक़्क़िक़ हक़ायक़ को बे-नक़ाब करता है, एक रहबर उस को सरीउ’ल-फ़ह्म बनाता और अवाम तक पहुँचाता है और एक शाइ’र उस में तन्नवोअ’ और तग़ज़्ज़ुल पैदा करता है। आप मुलाहिज़ा करेंगे कि हज़रत क़िब्ला में ये तीनों मन्सब किस तरह जमा’ हो गए हैं। बुलंद तरीन फ़ल्सफ़ा, सह्ल-ओ-सलीस अंदाज़-ए-बयान और रंगीन-तरीन तग़ज़्ज़ुल का बेहतरीन इम्तिज़ाज आपके कलाम में पाया जाता है।

    ये ज़ाहिर है कि हर शे’र और हर वाक़िआ’ के दिल-कश पहलुओं को समझना, उसके रंग-ओ-बू और कैफ़-ओ-कम से मुतअस्सिर होना उसकी हर्कत-ओ-सुकून और ज़ेर-ओ-बम के हम-आहंग होना हर शख़्स का काम नहीं है। इन हक़ाइक़ को समझने और उससे लुत्फ़ अंदोज़ होने के लिए एक मख़्सूस रुजहान-ए-ज़ेहनी की ज़रूरत है जो हर कस-ओ-नाकस को वदीअ’त नहीं होता इसलिए तफ़्सीर-ओ-तश्रीह की ज़रूरत भी पेश आती है। लेकिन मैंने दानिस्ता अश्आ’र पर राय लिखने और तश्रीह करने से गुरेज़ किया है क्यूँकि मुदर्रिसी का मन्सब इख़्तियार करना सिर्फ़ ये कि अपने लिए मुनासिब नहीं है बल्कि मुख़ातब की इहानत-ए-ज़ौक़ी भी है और तजदीद-ए-ख़्याल भी।

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