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तू अपने वहम-ए-हस्ती से निकल हस्ती उसी की है

ग़ौसी शाह

तू अपने वहम-ए-हस्ती से निकल हस्ती उसी की है

ग़ौसी शाह

MORE BYग़ौसी शाह

    तू अपने वहम-ए-हस्ती से निकल हस्ती उसी की है

    तू उस के इ'ल्म का मा'लूम बन बस्ती उसी की है

    वो हर ज़र्रा का ख़ालिक़ है वो हर ज़र्रा का मालिक है

    बुलंदी भी उसी की और ये पस्ती उसी की है

    मिरा मुझ में ब-जुज़ इक वहम-ए-हस्ती के नहीं कुछ भी

    मैं अपनी ज़ात से ख़ुद नीस्त हूँ हस्ती उसी की है

    तू नाक़िस है वो कामिल है तू मुर्दा है वो ज़िंदा है

    अ'दम है तू वही आबाद है बस्ती उसी की है

    शराब-ए-इ’श्क़-ओ-इ’रफ़ाँ पी के हर दम मस्त हूँ 'ग़ौसी'

    मुझे मस्ती जो रहती है तो ये मस्ती उसी की है

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