ऐ कि अज़ हर-शक्ल-ओ-हर-सूरत पदीदार आमदी
ऐ कि अज़ हर-शक्ल-ओ-हर-सूरत पदीदार आमदी
मज़हर-ए-ख़ुद ख़ुद शुदी व ख़ुद ब-इज़हार आमदी
तुम्हारा जल्वा तो हर शक्ल और सूरत में ज़ाहिर है
तू अपने आप का ख़ुद ही दृश्य और ख़ुद ही अभिव्यक्ति है
गाह दर ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा दम ज़े-इ'श्क़-ए-ख़ुद ज़दी
गाह चूँ यूसुफ़ ब-ख़ूबी गर्म-ए-बाज़ार आमदी
तू कभी ज़ुलेख़ा के ख़्वाब में इ’श्क़ का दम भरता है
तो कभी यूसुफ़ की शक्ल में बाज़ार में आ जाता है
हम-चू ज़ाहिद सुब्हः-ए-सद-दान: ब-गिरफ़्ती ब-कफ़
गाह हम-चूँ बरहमन पेचीद: ज़ुन्नार आमदी
तू कभी ज़ाहिदों की तरह अपने हाथ में सौ दानों वाली जापमाला लिए होता है
और कभी बरहमन की तरह जनेऊ बांधे आ जाता है
गह अनल-हक़ गुफ़्ती व गाहे हुअल-हक़ गुफ़्त:-इ
ख़ुद शुदी मंसूर व रक़्साँ बर-सर-ए-दार आमदी
तू कभी अनल-हक़ (मैं ख़ुदा हूँ) तो कभी हु-वल-हक़ कहा करता है
तू कभी मंसूर हो जाता है और सूली पर नाचता नज़र आता है
अज़ पय-ए-दिल बुर्दन-ए-मिस्कीँ 'हसन' अज़ शहर-ए-क़ुद्स
दर हरीम-ए-कुन-फ़काँ पोशीदः रुख़्सार आमदी
ग़रीब ‘हसन’ का दिल लेने के लिए तू कभी
पवित्रा के शहर से चेहरा छुपाए आ जाता है
- पुस्तक : नग़्मात-ए-सिमा (पृष्ठ 354)
- प्रकाशन : नूरुलहसन मौदूदी साबरी (1935)
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