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दर नमाज़म ख़म-ए-अब्रू-ए-तू चूँ याद आमद

हाफ़िज़

दर नमाज़म ख़म-ए-अब्रू-ए-तू चूँ याद आमद

हाफ़िज़

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    दर नमाज़म ख़म-ए-अब्रू-ए-तू चूँ याद आमद

    हालते रफ़्त कि मेहराब ब-फ़रियाद आमद

    जब नमाज़ में तुम्हारे अब्रू का ख़म मुझे याद आया तो ऐसी हालत हो गई कि मेहराब फ़रियाद करने लगी, (या’नी मेहराब-ए-मस्जिद के ख़म को देखकर महबूब के अब्रू याद गए। मेहराब का फ़रियाद करना, शिद्दत-ए-तअस्सुर से किनाया है। गोया महबूब की याद में बेचैनी इतनी बढ़ी कि मेहराब भी मुतआस्सिर हो गई)

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    मुझ से अब सब्र और दिल-ओ-होश की उम्मीद रख। जो तहम्मुल तुमने देखा वो महबूब को देख लेने के बा’द बाक़ी नहीं रहा

    दिल फ़रेबान-ए-नबाती हम: ज़ेवर बसतनद

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    नबाती दिल-फ़रेबों ने ज़ेवर पहन लिए या’नी सर-सब्ज़ हो गए उनकी दिल-फ़रेबी उनकी सर-सब्ज़ी की वजह से है लेकिन हमारा महबूब हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद के साथ आया (या’नी उस के हुस्न की दिल-फ़रेबी किसी ख़ारिजी वजह से नहीं है)

    मुतरिब अज़ गुफ़्तः-ए-‘हाफ़िज़’ ग़ज़ले नग़्ज बख़्वाँ

    ता-ब-गोयम कि ज़े अ’हद-ए-तरबम याद आमद

    मुत्रिब ‘हाफ़िज़’ के कलाम से कोई उ’म्दा ग़ज़ल गा ताकि मैं भी कह सकूँ कि मुझे मस्ती का दौर याद आगया

    स्रोत :
    • पुस्तक : नग़मातुल उंस फ़ी मजालिसुल क़ुदस (पृष्ठ 179)
    • रचनाकार : शाह हेलाह अहमद क़ादरी
    • प्रकाशन : दारुल एशा'अत ख़ानक़ाह मुजीबिया (2016)
    • संस्करण : First

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