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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
है मेरे ख़्वाजा की हर एक अदा अदा-ए-रसूलयही हैं आल नबी और यही ’अता-ए-रसूल
वजाहत हुसैन दाइम
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फ़ारसी कलाम
ख़ून शुद दिल व पामाल-ए-अदा शुद चे बजा शुदनक़्श-ए-कफ़-ए-पा बूद हिना शुद चे बजा शुद
ग़ुलाम इमाम शहीद
कलाम
ख़ुद अदा मरती है जिस पर वो अदा कुछ और हैहै वफ़ा भी जिस पे सदक़े वो जफ़ा कुछ और है
तसद्दुक़ अ’ली असद
शे'र
ख़ुद अदा मरती है जिस पर वो अदा कुछ और हैहै वफ़ा भी जिस पे सदक़े वो जफ़ा कुछ और है
तसद्दुक़ अ’ली असद
कलाम
निकल कर ख़ानक़ाहों से अदा कर रस्म-ए-शब्बीरीकि फ़क़्र-ए-ख़ानक़ाही है फ़क़त अंदोह-ओ-दिलगीरी
अल्लामा इक़बाल
कलाम
मुम्ताज़ अशरफ़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
जब लुत्फ़-ए-बंदगी है अदा यूँ नवाज़ होख़्वाजा के दर पे भेजी जबीन-ए-नियाज़ हो