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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
चादर
ग़िलाफ़-ए-’अर्श है ये ज़िल्ल-ए-रहमानी की चादर हैउठा लो सर पे ये महबूब-ए-सुबहानी की चादर है
शकील बदायूँनी
ना'त-ओ-मनक़बत
'इश्क़-ए-नबी से 'अर्श-ए-मु’अल्ला बना लियादिल अपना हम ने उन का मदीना बना लिया
डॉ. मंसूर फ़रिदी
ना'त-ओ-मनक़बत
जो था रोज़-ए-अज़ल से ज़ीनत-ए-’अर्श-ए-बरीं होकरवही आया जहाँ में रहमतुल-लिल’आलमीं होकर
शमीम अंजुम वारसी
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ना'त-ओ-मनक़बत
ऐ ख़्वाजा-ए-'अर्श आस्ताँ मख़्दूम-ए-साबिर कलियरीमसनद-नशीन-ए-ला-मकाँ मख़्दूम-ए-साबिर कलियरी
ज़हीन शाह ताजी
ग़ज़ल
तसव्वुर 'अर्श पर है वक़्फ़-ए-सज्दा है जबीं मेरीमिरा अब पूछना क्या आसमाँ मेरा ज़मीं मेरी
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
कलाम
नाँ रब्ब अर्श मुअ'ल्ला उत्ते न रब्ब ख़ाने-काबे हूना रब्ब इलम किताबीं लब्भा, न रब्ब विच महाराबे हू
सुल्तान बाहू
ना'त-ओ-मनक़बत
पूछते क्या हो 'अर्श पर यूँ गए मुस्तफ़ा कि यूँकैफ़ के पर जहाँ जलें कोई बताए क्या कि यूँ
अहमद रज़ा ख़ान
ना'त-ओ-मनक़बत
ज़मीन-ओ-आसमान क्या 'अर्श तक उन की रसाई हैमोहम्मद मुस्तफ़ा की शान भी शान-ए-ख़ुदाई है
अब्दुल हादी काविश
शे'र
'बेदम' तुम्हारी आँखें हैं क्या अर्श का चराग़रौशन किया है नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए-यार ने
बेदम शाह वारसी
कलाम
हक़्क़-ए-ता'ला 'अर्श पर है क्या कभी देखा गयाऔर फिर शह-रग से है नज़्दीक क्या कभी समझाया गया
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
ग़ज़ल
ज़मीन-ए-मय-कदः अर्श-ए-बरीं मा’लूम होती हैये ख़िश्त-ए-ख़ुम फ़रिश्ते की जबीं मा’लूम होती है
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मेरे क़बा में अर्श मकीं है मा दामी सुब्हान-अल्लाहक़ुर्ब-ए-हुज़ूरी ऐसी हुई है ला-ग़ैरी सुब्हान-अल्लाह
मरदान सफ़ी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
मुर्ग़-ए-दिलम तायरे-अस्त क़ुदसीय-ए-अर्श आशियाँअज़ क़फ़स-ए-तन-मलूल सैर शुदः अज़ जहाँ