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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
फ़ारसी कलाम
तू जान-ए-पाके सर-ब-सर नै आब-ओ-ख़ाक ऐ नाज़नींवल्लाह ज़े जाँ हम पाक-तर रूही फ़िदाक ऐ नाज़नीं
जामी
ना'त-ओ-मनक़बत
ग़ुबार-ए-कूचा-ए-मिर्ज़ा हूँ नक़्श-ए-आब नहींक़ुर्ब हो के मिट्टी मेरी ख़राब नहीं
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
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सूफ़ी कहावत
न सब्र दर दिल-ए-आशिक़, न आब दर गि़रबाल
प्रेमी के दिल में धैर्य वैसे ही नहीं हो सकता, जैसे छलनी में पानी को रखा नहीं जा सकता।
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
किसी पत्थर पे घिसने से न आब-ए-ज़र से जाता हैगुनह का दाग़ ज़िक्र-ए-साक़ी-ए-कौसर से जाता है