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नज़्म
अक्सर औक़ात सू-ए-ज़न से हुई
न हो एहसास-ए-कमतरी का शहीदये हर इक का नहीं है दिल गुर्दा
मयकश अकबराबादी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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ग़ज़ल
है एहसास-ए-ख़ुदी सब को कोई मोमिन हो या काफ़िरचला सब पर तिरा जादू पढ़ा सब ने तिरा मंतर
मयकश अकबराबादी
ग़ज़ल
इक बसीत-ए-एहसास इक शौक़-ए-नुमायाँ चाहिएइ'श्क़ की नब्ज़ों में रक़्स मौज-ए-तूफ़ाँ चाहिए
अख़तर अ’लीगढ़ी
शे'र
जब चाहने वाले ख़त्म हुए उस वक़्त उन्हें एहसास हुआअब याद में उन की रोते हैं हँस हँस के रुलाना भूल गए
कामिल शत्तारी
शे'र
दफ़्न हूँ एहसास की सदियों पुरानी क़ब्र मेंज़िंदगी इक ज़ख़्म है और ज़ख़्म भी ताज़ा नहीं
मुज़फ़्फ़र वारसी
शे'र
दफ़्न हूँ एहसास की सदियों पुरानी क़ब्र मेंज़िंदगी इक ज़ख़्म है और ज़ख़्म भी ताज़ा नहीं
मुज़फ़्फ़र वारसी
शे'र
एहसास के मय-ख़ाने में कहाँ अब फिक्र-ओ-नज़र की क़िंदीलेंआलाम की शिद्दत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए