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ना'त-ओ-मनक़बत
मा’दिन-ए-हिल्म-ओ-हया हज़रत-ए-ग़ौसुस्सक़लैनमख़्ज़न-ए-जूद-ओ-सख़ा हज़रत-ए-ग़ौसुस्सक़लैन
अज्ञात
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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ग़ज़ल
हिजाब-ए-ख़ास के पर्दे उठे हैं कैफ़-ओ-मस्ती मेंन जाने किस की हस्ती देखता हूँ अपनी हस्ती में
मुज़्तर ख़ैराबादी
सूफ़ी कहानी
एक आ’राबी का ख़लीफ़ा-ए-बग़दाद के पास खारी पानी बतौर तोहफ़ा ले जाना - दफ़्तर-ए-अव्वल
अगले ज़माने में एक ख़लीफ़ा था जिसने हातिम को भी अपनी सख़ावत के आगे भिकारी बना
रूमी
सूफ़ी उद्धरण
सच्चे इन्सान के लिए ये काइनात ऐ’न-ए-हक़ीक़त है और झूटे के लिए यही काइनात हिजाब-ए-हक़ीक़त है
सच्चे इन्सान के लिए ये काइनात ऐ’न-ए-हक़ीक़त है और झूटे के लिए यही काइनात हिजाब-ए-हक़ीक़त है।
वासिफ़ अली वासिफ़
ना'त-ओ-मनक़बत
मेरे पास ऐसी ज़बाँ कहाँ तेरी शान जल्ला-जलालुहुतेरी हम्द को जो करे बयाँ तेरी शान जल्ला-जलालुहु
माएल वारसी
दोहरा
तुका बड़ो मैं ना मनूँ जिस पास बहु दाम
'तुका' बड़ो मैं ना मनूँ जिस पास बहु दामबलिहारी उस मुख की जिस्ते निकसे राम
तुकाराम
ना'त-ओ-मनक़बत
न ख़ंजर पास है उन के न वो शमशीर रखते हैंमगर अबरू की जुम्बिश में 'अजब तासीर रखते हैं
अनवारुल्लाह फ़रूक़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
लाया तुम्हारे पास हूँ या पीर अल-ग़ियासकर आह के क़लम से मैं तहरीर अल-ग़ियास