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कलाम
भड़क ऐ शम'-ए-कुश्ता और निगाह-ए-जुस्तुजू बन जामिरी तुर्बत किसी को बे-निशाँ मा'लूम होती है
माहिरुल क़ादरी
ग़ज़ल
रग-ओ-पै में आग भड़क उठी फूंके है पड़ा सभी तन-बदनमुझे साक़िया मय-ए-आतिशीं का ये जाम कैसा पिला दिया