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कलाम
ख़ाक के कुछ मुंतशिर ज़र्रों को इंसाँ कर दियाउस ने जिस जल्वे को जब चाहा नुमायाँ कर दिया
माहिरुल क़ादरी
ना'त-ओ-मनक़बत
हमारे मुंतशिर होने की ये तमसील क्या कम हैफ़ज़ाओं में तबाही का नज़ारा या रसूल-अल्लाह
ख़्वाजा शायान हसन
कलाम
मुयस्सर होगा औज-ए-ख़ाकसारी ख़ाक में मिल करफ़लक पर उड़ के पहुँचेगा ग़ुबार-ए-मुंतशिर अपना
बर्क़ देहलवी
ग़ज़ल
दिल के ज़र्रे मुंतशिर होकर मिले हैं ख़ाक मेंजो बिखर जाए वो शीराज़ा सिमट सकता नहीं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
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ग़ज़ल
मोहब्बत की जो फैली है ये निकहत बाग़-ए-आलम मेंहुई है मुंतशिर ख़ुशबू-ए-यार आहिस्तः आहिस्तः
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
टुकड़े टुकड़े हो गया है दिल फ़िराक़-ए-यार मेंमुंतशिर ऐ वस्ल ये गंजीना-ए-अबतर न हो
रज़ा फ़िरंगी महल्ली
कलाम
ज़रा तक्लीफ़-ए-जुंबिश दे निगाह-ए-बर्क़-ए-सामाँ कोजहाँ में मुंतशिर कर दे मज़ाक़-ए-सोज़ पिन्हाँ को
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
धड़क रहा है ज़ोर से तो कुछ तो बात है ज़रूरकि दिल के दर्द-ए-मुंतशिर में ऐ'न शीन क़ाफ़ है
ख़्वाजा शायान हसन
सूफ़ी लेख
समा के आदाब-ओ-मवाने से का इनहराफ़
हज़रत जुनैद ने रि’आयत-ए-मकान की तस्रीह ये की है कि ''मकान से मुराद ये कि जिस