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ग़ज़ल
मेरे जी में था कि कहूँगा मैं ये जो दिल पे रंज-ओ-मलाल हैवो जब आ गया मेरे सामने न तो रंज था न मलाल था
बहादुर शाह ज़फ़र
कलाम
फ़ना बन कर मलाल ख़ातिर महज़ून-ए-'अयाँ क्यूँ होकोई ये भी दिगर पूछे कि सरगर्म-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
अज्ञात
कलाम
मैं मसर्रत में ख़ुशी में हूँ न रंज-ओ-ग़म में हूँरू-ए-जानाँ सामने है मैं अजब आ'लम में हूँ
अब्दुल हादी काविश
शे'र
बला के रंज-ओ-ग़म दरपेश हैं राह-ए-मोहब्बत मेंहमारी मंज़िल-ए-दिल तक हमें अल्लाह पहुँचाए