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ना'त-ओ-मनक़बत
ख़ुदा की शान है 'अकबर' तिरे दरबार में आया
वगर्ना ये कहाँ 'आजिज़ कहाँ सुल्तान-ए-महबूबी
अकबर वारसी मेरठी
ग़ज़ल
बहा जाता है ख़ूँ आँखों से उस की ये निशाँ तो है
वगर्ना कौन पहचाने तिरे बीमार की सूरत
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
ना'त-ओ-मनक़बत
जो तेरी तरह मिटें हक़ पे वो हैं तेरे ग़ुलाम
वगर्ना क्या है तिरे ग़म में आह-ए-नीम-शबी
मयकश अकबराबादी
कलाम
तुम्हारे हुस्न में जज़्बा था ख़ुद 'इश्क़-ए-आफ़रीनी का
वगर्ना दा'वे उल्फ़त की हिम्मत थी कहाँ मुझ को
शाकिर कानपुरी
शे'र
सिवा क़िस्मत के दुनिया में नहीं कुछ मुतलक़न मिलता
वगर्ना ज़ोर कर के आज़मा ले जिस का जी चाहे
किशन सिंह आरिफ़
ग़ज़ल
कहूँ क्या दिल उड़ाने का तिरा कुछ ढब निराला था
वगर्ना हर तरह से अब तलक तो मैं सँभाला था