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ग़ज़ल
‘वजाहत’ मैं नियाज़ी हूँ मुझे क्या फ़िक्र दुनिया कीहर इक ज़र्रे में शर्फ़-ए-बंदगी महसूस करता हूँ
वजाहत हुसैन दाइम
ना'त-ओ-मनक़बत
'अता मुझे भी करो ’अज़्म-ओ-‘वजाहत’ ख़्वाजाग़ुलाम आप के दर का हूँ और गदा-ए-रसूल
वजाहत हुसैन दाइम
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ना'त-ओ-मनक़बत
परेशाँ है हिरासाँ है बहुत नादिम है आ'जिज़ भी'वजाहत' पर करम या ग़ौस-उल-अ'ज़म शाह-ए-जिलानी
वजाहत हुसैन दाइम
ना'त-ओ-मनक़बत
'अली के नाम-लेवा से 'वजाहत' ग़म भी डरता है'अली वो हैं कि जिन के नाम से ख़ैबर लरज़ता है
वजाहत हुसैन दाइम
ना'त-ओ-मनक़बत
वजाहत हुसैन दाइम
दकनी सूफ़ी काव्य
तूतीनामा- चुन उस गोहराँ के समन्द का गम्भीर
दिवानी हो उसकी वजाहत उपरबली जाये कर उसके क़ामत उपर
मुल्ला ग़व्वासी
सूफ़ी लेख
ख़ानदान-ए-चिराग़ देहलवी
ख़ानदानी वजाहत-ओ-ज़ाती फ़ज़्ल-ओ-करम की वजह से मक़बूल-ए-’आम-ओ-ख़्वास रहे।कार-ओ-बारः-
सय्यद रिज़्वानुल्लाह वाहिदी
ना'त-ओ-मनक़बत
शकर-लब ख़ंदा-ए-नमकीं ख़ुमार-ए-मय-कशाँ सर-ए-ख़मख़जिल सर्व-ए-रवाँ पाया तिरे क़द की वजाहत से