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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
ऐसा हुआ न कोई भी शाह-ए-ज़मन के बा'दआया हो लौट कर जो ख़ुदा से मिलन के बा'द
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
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ना'त-ओ-मनक़बत
दर-ए-मुर्शिद से दिल के तार जब टकराने लगते हैंतसव्वुर में ज़ियारत के मज़े हम पाने लगते हैं
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
ना'त-ओ-मनक़बत
कभी धरती से जाता है कभी अम्बर से जाता हैपयाम-ए-हक़ ज़माने में हर इक मंज़र से जाता है
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
ना'त-ओ-मनक़बत
हक़ीक़त मेरे ख़्वाजा की कोई बे-’इल्म क्या जानेख़ुदा ही ख़ूब जाने है ओ या बस मुस्तफ़ा जाने
ज़ैनुल आबिदीन चिश्ती
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
लाफ़-ए-दानिश मी-ज़नी ख़ुद रा नमी दानी चे सूददा'वा-ए-दिल मी-कुनी-ओ-ग़ाफ़िल अज़ जानी चे सूद
रूमी
कलाम
अपने दीवाने को ज़ालिम इस तरह तड़पा न अबमस्त नज़रों से पिला कर कह भी दे दीवाना अब