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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
दिलम अज़ फ़र्त-ए-शौक़-ए-वस्ल-ए-आँ जानानः मी-रक़्सदकि परवानः ब-पेश-ए-शम्अ’ बे-ताबानः मी-रक़्सद
शाह अकबर दानापूरी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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ग़ज़ल
अ'जब दर्द-आश्ना हूँ दर्द-ए-दिल मैं मोल लेता हूँमुझे प्यारा है शौक़-ए-वस्ल से सदमा जुदाई का
शाह अकबर दानापूरी
कलाम
आरज़ू-ए-वस्ल-ए-जानाँ में सहर होने लगीज़िंदगी मानिंद-ए-शम्अ' मुख़्तसर होने लगी
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ता दिलम दर तलब-ए-वस्ल-ए-तू अज़ जाँ बरख़ास्ततूती-ए-नुत्क़-ए-मन अज़ दर्द-ए-फ़िराक़त गोयास्त
रूमी
कलाम
तालिब-ए-वस्ल-ए-यार हूँ शौक़-ए-जिगर को क्या करूँहिज्र से बे-क़रार हूँ सूद-ओ-ज़रर को क्या करूँ