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"तेरहवीं सदी हिज्री के आख़िर में 2 मई 1874 को सनीचर के दिन और दूसरी बार 17 अप्रैल 1897 को भी सनीचर के दिन काको में ऐसी आग लगी कि सारी बस्ती धूँ-धूँ कर जल उठी। इस आग में काको के लोगों का सारा सरमाया जल कर ख़ाक हो गया"इस आग के बारे में यह कहावत मशहूर है कि - "सारा काको जल गया और बीबी कमाल सोई रहीं"
कैवान-ओ-ज़ुहल सनीचर आमदऊदैत ब-फ़ारसी ख़ोर आमद
आस्मानहा कि आँ रा ‘अकन’ (गगन) मी-गोयंद बतौर-ए-अह्ल-ए-हिन्द हश्त अस्त, हफ़्त अज़ाँ मक़र्र-ए-हफ़्त कवाकिब-ए-सय्यारः अस्त कि
सनीचरسنیچر
saturday
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