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सूफ़ी उद्धरण
जिस शख़्स का वतन में कोई महबूब न हो वो वतन से मोहब्बत नहीं कर सकता।
जिस शख़्स का वतन में कोई महबूब न हो वो वतन से मोहब्बत नहीं कर सकता।
वासिफ़ अली वासिफ़
सूफ़ी कहावत
ख़ाक-ए-वतन अज़ मुल्क-ए-सुलैमाँ ख़ुश्तर
वतन की मिट्टी सुलैमान (नबी) की सलतनत से ज़्यादा बेहतर है
वाचिक परंपरा
गूजरी सूफ़ी काव्य
पिउ है वतन तू है सरा पस आप कूँ छोड़ कर
पिउ है वतन तू है सरा पस आप कूँ छोड़ करहुब्बुलवतन ईमान है पिउ की तरफ़ चले ऐ सखी
पीर सय्यद मोहम्मद अक़दस
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नज़्म
वतन के मुहाफ़िज़ का पैग़ाम अपनी माँ के नाम
दूर रह कर तिरी फ़ुर्क़त भी गवारा है मुझेघर से तो जंग का मैदाँ ही प्यारा है मुझे
अज़ीज़ वारसी देहलवी
कलाम
करें हम किस की पूजा और चढ़ाएँ किस को चंदन हमसनम हम दैर हम बुत-ख़ाना हम बुत हम बरहमन हम
मीर शमसुद्दीन फ़ैज़
दोहरा
ख़्वाजा मुईनुद्दीन के आये हम दरबार
ख़्वाजा मुईनुद्दीन के आये हम दरबारपाई मुरादें जिय की, लागे नाहीं बार
शाह आलम सानी
कुंडलिया
हिंदू कहें सो हम बड़े, मुसलमान कहें हम्म ।
हिंदू कहें सो हम बड़े, मुसलमान कहें हम्म ।एक मूंग दो झाड़ हैं, कुण ज्यादा कुण कम्म।।
दीन दरवेश
शे'र
क़िस्मत जागे तो हम सोएँ क़िस्मत सोए तो हम जागेंदोनों ही को नींद आए जिसमें कब ऐसी रातें होती हैं