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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
कलाम
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंगदेखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
सूफ़ी कहावत
ग़व्वास गर अंदेशा कुनद काम-ए-नहंग। हरगिज़ न कुनंद दुर्र-ए-गरांमाया बा-चंग
जो ग़ोताख़ोर मगरमच्छ के चमकने वाले दांतों से डरता है, वह कभी भी मूल्यवान मोती नहीं पा सकेगा।
वाचिक परंपरा
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कलाम
तिरा क्या काम अब दिल में ग़म-ए-जानाना आता हैनिकल ऐ सब्र इस घर से कि साहिब-ख़ाना आता है
अमीर मीनाई
क़िता'
कुछ ख़बर भी है तुझे ऐ तिश्ना-काम-ए-ज़िंदगीहो चुका पुर अब छलकने को है जाम-ए-ज़िंदगी
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
शे'र
हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेकजी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
काफ़िर-ए-'इश्क़ को यारो नहीं इस्लाम से कामगर्दिश-ए-चश्म से मतलब है नहीं जाम से काम