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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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शे'र
कमाल-ए-इ’ल्म-ओ-तहक़ीक़-ए-मुकम्मल का ये हासिल हैतिरा इदराक मुश्किल था तिरा इदराक मुश्किल है
सीमाब अकबराबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
हासिल-ए-ज़िंदगी थे तुम तुम से थी ज़िंदगी मेरीतू ने निगाह फेर ली दुनिया बदल गई
शाह सुलतान अहमद चिश्ती
ग़ज़ल
मकीँ जिसमें न हो फिर उस मकाँ से ख़ाक हासिल हैतेरी उल्फ़त से जो ख़ाली हो वह दिल भी कोई दिल है
अफ़ज़ल लखनवी
बैत
हस्ती को फ़ना कर के बक़ा होती है हासिल
हस्ती को फ़ना कर के बक़ा होती है हासिलजब तक न हो सनम क़तरा समंदर नहीं होता