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सूफ़ी कहावत
ज़माना बा तू नासाज़द, तू बा ज़माना साज़।
अगर समय आपके लिए उपयुक्त नहीं हैं, तो आप खुद को उनके अनुसार बदलें।
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
तुझ पे सदक़े है ज़माना शह-ए-ख़ूबाँ तू हैअहल-ए-उल्फ़त के लिए हासिल-ए-ईमाँ तू है
फ़ना बुलंदशहरी
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ना'त-ओ-मनक़बत
इक मैं ही नहीं उन पर क़ुर्बान ज़माना हैजो रब्ब-ए-दो-आ'लम का महबूब-ए-यगाना है
पीर नसीरुद्दीन नसीर
मुख़म्मस
एक ज़माना था कि हिज्र-ए-यार में सीना-फ़िगारजुस्तुजू में उस की फिरता था ब-हर शहर-ओ-दयार
आग़ा मुहम्मद दाऊद
ना'त-ओ-मनक़बत
ज़माने भर में फिर मेरी निराली शान हो जाएअगर तुम से मेरे ख़्वाजा मेरी पहचान हो जाए
मनाज़िर चिश्ती ग़जाली
ग़ज़ल
पर्दा-दारी के ’एवज़ बदनाम-ओ-रुसवा कर दियाऐ ख़याल-ए-यार क्या करना था और क्या कर दिया