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बैत
इक 'उम्र से है मुझ पे नज़र बर्क़-ए-तपाँ की
इक 'उम्र से है मुझ पे नज़र बर्क़-ए-तपाँ कीअब दिल में तमन्ना ही नहीं जा-ए-अमाँ की
कामिलुल क़ादरी
ग़ज़ल
उस से वाक़िफ़ हैं सर-ए-सहन-ए-गुलिस्ताँ कितनेहम किसी गुल की तलब में हैं परेशाँ कितने
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
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दोहा
रहिमन रहिला की भली जो परसै चित लाय
रहिमन रहिला की भली जो परसै चित लायपरसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय
रहीम
शे'र
हम तल्ख़ी-ए-क़िस्मत से हैं तिश्ना-लब-ए-बादागर्दिश में है पैमाना पैमाने से क्या कहिए
सीमाब अकबराबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
वहाँ अल्लाह से मिलने इक इंसाँ घर से जाता हैफ़रिश्ता भी जहाँ कोशिश करे तो पर से जाता है
इज़हार जबलपुरी
ग़ज़ल
मा-वरा हैं दोस्त मेहर-ओ-माह की मंज़िल से हमदहर पर खिलते तो हैं लेकिन बड़ी मुश्किल से हम
अदीब सहारनपुरी
ना'त-ओ-मनक़बत
हम न गुस्ताख़ी सहेंगे मुस्तफ़ा के नाम परजान भी दे देंगे हम डरते नहीं अंजाम से