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कलाम
है तीर-ए-निगह-ए-बज़्म-ए-अ'दू में मिरी जानिबग़ुस्से में छुपाया है मोहब्बत की नज़र को
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
कभी तार-ए-क़फ़स कटता नहीं शहबा-ए-हिज्राँ मेंनए जौहर हैं ऐ क़ातिल मिरी तेग़-ए-गरेबाँ में
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
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ग़ज़ल
जब तुम चल्या गुलज़ार से ऐ रश्क-ए-ख़ूबान-ए-चमनबुलबुल कहा तब सोज़ सूँ मुझ पर है अब रोज़-ए-हशर
क़ादिर बख़्श बेदिल
कलाम
'सौदा-गर' हाल-ए-मिर्ज़ा पाकर ये कह रहा हैहै ज़ात कंज़-ए-मख़्फ़ी ज़ात-ए-बक़ा-ए-मिर्ज़ा
शाह सिद्दीक़ सौदागर
कवित्त
हरखै हरौल ह्वै अमरखे अनंग हेत
हरखै हरौल ह्वै अमरखे अनंग हेतकरखै कलापो चोपि चातक चमू पिली।
क़ादिर बख़्श
कवित्त
गरज नगारे भारे वृन्द हरकारे आगे।
गरज नगारे भारे वृन्द हरकारे आगे।ध्वजा धारे धुरवा गजतीना बदन के।
क़ादिर बख़्श
कवित्त
देखत के नीके परिनाम बहु आदर के।
देखत के नीके परिनाम बहु आदर के।देखत भलाई सदा जीव में जरे रहैं।।
क़ादिर बख़्श
कलाम
ये 'राज़'-गर की करामत नहीं तो क्या है राज़ग़ुलाम-ए-सिलसिला-ए-नाम-ए-बू-तुराब किया