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काफी
माए ना मुड़दा इ'श्क़ दीवाना शहु नाल परीतां ला के
पुच्छो नी इह क्यूँ शरमांदा जांदा ना भेत बता केकाफ़र काफ़र आखन तैनूँ सारे लोक सुना के
बुल्ले शाह
कलाम
इल्मों बाझ जे फ़क़र कमावे, काफ़िर मरे दीवाना हूसै वर्हयाँ दी करे इबादत अल्लाह थीं बेगाना हू
सुल्तान बाहू
ग़ज़ल
देखा जो तुझे काफ़िर दीं-दार बहुत रोयाज़ाहिद भी पटक अपनी दस्तार बहुत रोया
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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रूबाई
है कुफ़्र अगरचे हक़ को मैं ग़ैर कहूँपर का'बः को किस तरह से कि दैर कहूँ
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
कलाम
तुम को गर ख़ुद से जुदा समझूँ तो मैं काफ़िर हूँमैं अगर ग़ैर-ए-ख़ुदा समझूँ तो मैं काफ़िर हूँ
अज्ञात
फ़ारसी कलाम
आ'शिक़-ए-यारम मरा बा-कुफ़्र-ओ-बा-ईमाँ चे कारतिश्न:-ए-दर्दम मरा बा-वस्ल-ओ-बा-हिज्राँ चे कार
हाफ़िज़
कलाम
काफ़िर-ए-’इश्क़ हूँ मैं बंदा-ए-इस्लाम नहींबुत-परस्ती के सिवा और मुझे काम नहीं
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ऐ जान-ए-मा ऐ जान-ए-मा ऐ कुफ़्र-ओ-ईमान-ए-माख़्वाहम कि ईं ख़र-मोहरः रा गौहर कुनी दर कान-ए-मा
रूमी
कलाम
जो दम ग़ाफ़िल सो दम काफ़िर मुर्शिद एह पढ़ाया हूसुणया सुख़न गइयाँ खुल अक्खीं चित्त मौला वल लाया हू
सुल्तान बाहू
कलाम
क्या कहें मिल्लत-ओ-दीं कुफ़्र है ईमाँ अपनापेश-ए-बुत-ए-सज्दा है और दैर है ऐवाँ अपना