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शे'र
न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़ियत-ए-सहबा के अफ़्सानेशराब-ए-बे-ख़ुदी के मुझ को साग़र याद आते हैं
हसरत मोहानी
शे'र
गरचे कैफ़ियत ख़ुशी में उस की होती है दो-चंदपर क़यामत लुत्फ़ रखती है ये झुँझलाने की तरह
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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फ़ारसी कलाम
ऐ माह-ए-ख़ूबाँ यक शबे बा-ख़्वेश मेहमाँ कुन मरावज़ आफ़ताब-ए-रु-ए-ख़ुद चूँ सुब्ह ख़ंदाँ कुन मरा
अमीर हसन अला सिज्ज़ी
कलाम
न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़ियत-ए-सहबा के अफ़्सानेशराब-ए-बे-ख़ुदी के मुझ को साग़र याद आते हैं
हसरत मोहानी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
यक शबे ग़व्वास बूदम बर लब-ए-दरिया-ए-'इश्क़सद हज़ाराँ दुर्र-ओ-गौहर दीदम अज़ दरिया-ए-'इश्क़
रूमी
सूफ़ी कहावत
अगर शबहा-ए-हमा शब-ए-क़द्र बूदे, शब-ए-क़द्र बे-क़द्र बूदे
अगर हर रात शब-ए-क़द्र होती, तो शब-ए-क़द्र की कोई महानता नहीं होती।
वाचिक परंपरा
फ़ारसी कलाम
अज़ दैर-ए-मुग़ाँ आयम बे-गर्दिश-ए-सहबा मस्तदर मंज़िल-ए-ला-बूदम अज़ बादः-ए-इल्ला मस्त
अल्लामा इक़बाल
शे'र
गवारा किस को हो साक़ी ये बू-ए-ग़ैर सहबा केकिसी ने पी है साग़र में जो बू है ग़ैर-ए-साग़र में
राक़िम देहलवी
ग़ज़ल
अज़ दैर-ए-मुग़ाँ आया मय-ए-गर्दिश-ए-सहबा मस्तदर बज़्म-ए-फ़ना देखा हर ज़र्रा तमाशा मस्त
आकिफ़ हुसैन शाहवली
फ़ारसी कलाम
अगर बीनम शबे नागाह आँ सुल्तान-ए-खूबाँ रासर अंदर पा-ए-ऊ आरम फ़िदा साज़म दिल-ओ-जाँ रा