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ग़ज़ल
पीर-ए-मुग़ाँ के पा-ए-नाज़ और मिरा सर-ए-नियाज़होती है मय-कदे में रोज़ अपनी यूँही नमाज़-ए-इश्क़
बेदम शाह वारसी
शे'र
फ़रोग़-ए-हसरत-ओ-ग़म से जिगर में दाग़ रखता हूँमिरे गुलशन की ज़ीनत दौर-ए-हंगाम-ए-ख़िज़ाँ तक है
वली वारसी
शे'र
उस बुलबुल-ए-असीर की हसरत पे दाग़ हूँमर ही गई क़फ़स में सुनी जब सदा-ए-गुल