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गूजरी सूफ़ी काव्य
उक़्दा दर-पर्द: रामकली
वाली तपती हूँ तेरे कारने टुक दर्शन तेरा मुख दिखलाओबार एक गली हमारे आओ
क़ाज़ी महमूद दरियाई
फ़ारसी कलाम
दर-पर्दः अ'यानस्ती व बे-पर्दः निहानीहम नाम-ओ-निशाँ दारी व बे-नाम-ओ-निशानी
मुज़फ़्फ़र अली शाह
गूजरी सूफ़ी काव्य
उक़्दा दर-पर्द: बैन
कोई कहो रे बाहलाँ वाली तूँ मिलन होसी कबलेनजब तुम केती चलन की बाताँ
क़ाज़ी महमूद दरियाई
ग़ज़ल
कोई दर-पर्दा शायद मेहरबाँ मा'लूम होता हैकि अब हर साँस 'उम्र-ए-जावेदाँ मा'लूम होता है
नख़्शब जार्चवि
ग़ज़ल
वो भी वक़्त आया था जब वो ज़ेब-ए-फ़राज़-ए-बाम हुएलेकिन ताब-ए-दीद किसे थी अहल-ए-नज़र नाकाम हुए
सदिक़ देहलवी
कलाम
सँभल ऐ दिल किसी का राज़ बे-पर्दा न हो जाएये दीवानों की महफ़िल है कोई रुस्वा न हो जाए