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ग़ज़ल
हम उस कूचे को जज़्ब-ए-शौक़ की मंज़िल समझते हैंदर-ए-जानाँ के हर ज़र्रा को अपना दिल समझते हैं
शफ़क़ एमाद्पुरी
ग़ज़ल
क्यूँ न ख़ुश हूँ मौत आई मुझ को मंज़िल के क़रीबजान परवाना की निकली शम्अ'-ए-महफ़िल के क़रीब
अफ़क़र मोहानी
कलाम
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैंकि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
सूफ़ी साहित्य
मंज़िल
ग़ज़ल
सारी ख़िल्क़त राह में है और हो मंज़िल में तुमदोनों 'आलम दिल से बाहर हैं फ़क़त हो दिल में तुम
अहमद हुसैन माइल
शे'र
अब उस मंज़िल पे पहुँचा है किसी का बे-ख़ुद-ए-उल्फ़तजहाँ पर ज़िंदगी-ओ-मौत का एहसास यकसाँ है