परिणाम "ग़ज़ल-गो"
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“अकबर सिर्फ़ ग़ज़ल-गो ही न थे बल्कि फ़ीचरल और क़ौमी नज़्में भी ख़ूब-ख़ूब लिखी हैं। उनकी क़ौमी नज़्मों को देखकर हैरत होती है कि एक सूफ़ी ग़ज़ल-गो हो कर उनकी कितनी दूर-रस निगाहें थीं जो क़ौम को ता’लीम और सनअ’त-ओ-हिर्फ़त की तरफ़ माएल करने की कोशिश की। ऐसा रौशन ख़याल सूफ़ी और साहिब-ए-वज्द-ओ-हाल ता’लीमी, सियासी और समाजी कामों में दिल-चस्पी लेने वाला शाज़-ओ-नादिर ही मिलेगा।”(सिह माही रिसाला सफ़ीना पटना, सः 27, शुमारा 3, जुलाई-ता सितंबर 1982 ई’स्वी)
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