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शे'र
मोहब्बत में जुदाई का मज़ा 'मुज़्तर' न जाने दूँवो बुलबुल हूँ कि गुल पाऊँ तो पत्ता दरमियाँ रक्खूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
चाटती है क्यूँ ज़बान-ए-तेग़-ए-क़ातिल बार बारबे-नमक छिड़के ये ज़ख़्मों में मज़ा क्यूँकर हुआ
अमीर मीनाई
शे'र
मियान-ए-तिश्नगी प्यासों ने ऐसी लज़्ज़तें लूटींकि आब-ए-तेग़-ए-क़ातिल बे-मज़ा मा’लूम होता है