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लाया तुम्हारे पास हूँ या पीर अल-ग़ियासकर आह के क़लम से मैं तहरीर अल-ग़ियास
फ़लक ख़ुद पीर है गर्दिश सताए आप ही उस कोउसी से आह को शिक्वा है अपनी ना-रसाई का
मुरीद-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना हुए क़िस्मत से ऐ नासेहन झाड़ें शौक़ में पलकों से हम क्यूँ सहन-ए-मय-ख़ाना
है क्या ख़ौफ़ 'आरिफ़' को महशर के दिनवकालत पे जब पीर मुख़्तार हो
होता नहीं है सर से मेरे ये कभी जुदाएहसान मानता हूँ मैं एहसान-ए-पीर का
मर्दान-ए-ख़ुदा जो हैं वो हैं आरिफ़ बिल्लाहतफ़रीक़ नहीं में है कि कुछ पीर-ओ-जवाँ में
उतरा वो ख़ुमार-ए-बादा-ए-ग़म रिंदों को हुवा इदराक-ए-सितमखुलने को है मय-ख़ाने का भरम अब पीर-ए-मुग़ाँ की ख़ैर नहीं
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