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महबूब वारसी गयावी
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नहीं आँख जल्वा-कश-ए-सहर ये है ज़ुल्मतों का असर मगरकई आफ़्ताब ग़ुरूब हैं मिरे ग़म की शाम-ए-दराज़ में
सीमाब अकबराबादी
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रिंद हूँ ब-ख़ुदा मगर ‘बेख़ुद’ हूँ बे-ख़ुदा नहींतुम ही मेरे हो पेशवा या’नी कि ना-ख़ुदा भी तुम
बेख़ुद सुहरावरदी
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अगर हम तुम सलामत हैं कभी खुल जाएगी क़िस्मतइसी दौर-ए-लयाली में इसी गर्दूं के चक्कर में
राक़िम देहलवी
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अब्दुल हादी काविश
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ख़त-ए-क़िस्मत मिटाते हो मगर इतना समझ लेनाये हर्फ़-ए-आरज़ू हाथों की रंगत ले के उट्ठेंगे
मुज़्तर ख़ैराबादी
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ख़त-ए-क़िस्मत मिटाते हो मगर इतना समझ लेनाये हर्फ़-ए-आरज़ू हाथों की रंगत ले के उट्ठेंगे
मुज़्तर ख़ैराबादी
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अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इंसान के बस का काम नहींफ़ैज़ान-ए-मोहब्बत आम सही इरफ़ान-ए-मोहब्बत आम नहीं
जिगर मुरादाबादी
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अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रतहमारे बा’द फिर अंदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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लैल-ओ-नहार चाहे अगर ख़ूब गुज़रे 'इ’श्क़'कर विर्द उस के नाम को तू सुब्ह-ओ-शाम का