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शे'र
हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या इ’लाजइ’श्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं
जिगर मुरादाबादी
शे'र
नहीं पड़ते हैं ज़मीं पर जो तिरे नक़्श-ए-क़दमक्यूँ उड़े रंग-ए-हिना ग़ैर के घर जाने में