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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
इलाही ख़ैर ज़ोरों पर बुतान-ए-पुर-ग़ुरूर आएकहीं ऐसा न हो ईमान-ए-आ’लम में फ़ुतूर आए
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
नहीं लख़्त-ए-जिगर ये चश्म में फिरते कि मर्दुम नेचराग़ अब करके रौशन छोड़े हैं दो-चार पानी में
शाह नसीर
शे'र
सजा कर लख़्त-ए-दिल से कश्ती-ए-चश्म-ए-तमन्ना कोचला हूँ बारगाह-ए-इ’श्क़ में ले कर ये नज़्राना
बेदम शाह वारसी
शे'र
असीर-ए-गेसू-ए-पुर-ख़म बनाए पहले आशिक़ कोनिकाले फिर वो पेच-ओ-ख़म कभी कुछ है कभी कुछ है
अब्दुल हादी काविश
शे'र
चश्म-ए-हक़ीक़त-ए-आश्ना देखे जो हुस्न की किताबदफ़्तर-ए-सद-हदीस-ए-राज़ हर वरक़-ए-मजाज़ हो
बेदम शाह वारसी
शे'र
फ़क़ीर-ए-‘कादरी’ जो देखते हैं चश्म-ए-बीना सेतो बंदे को ख़ुदा कहने की जुर्अत आ ही जाती है
फ़क़ीर क़ादरी
शे'र
चश्म नर्गिस बन गई है इश्तियाक़-ए-दीद मेंकौन कहता है कि गुलशन में तिरा चर्चा नहीं
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
शे'र
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
अमीर मीनाई
शे'र
अमीर मीनाई
शे'र
अज़ीज़ वारसी देहलवी
शे'र
तुम अपनी ज़ुल्फ़ खोलो फिर दिल-ए-पुर-दाग़ चमकेगाअंधेरा हो तो कुछ कुछ शम्अ' की आँखों में नूर आए
मुज़्तर ख़ैराबादी
शे'र
तेरे नैन-ए-पुर-ख़ुमार कूँ सरमस्त-ए-बादा-नाज़या बे-ख़ुदी का जाम या सहर-ए-बला कहूँ