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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
वो बहर-ए-हुस्न शायद बाग़ में आवेगा ऐ 'एहसाँ'कि फ़व्वारा ख़ुशी से आज दो दो गज़ उछलता है
अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शे'र
कूचे में तिरे ऐ जान-ए-ग़ज़ल ये राज़ खुला हम पर आ करग़म भी तो इनायत है तेरी हम ग़म का मुदावा भूल गए
अब्दुल हादी काविश
शे'र
चश्म-ए-हक़ीक़त-ए-आश्ना देखे जो हुस्न की किताबदफ़्तर-ए-सद-हदीस-ए-राज़ हर वरक़-ए-मजाज़ हो
बेदम शाह वारसी
शे'र
शाख़-ए-गुल हिलती नहीं ये बुलबुलों को बाग़ मेंहाथ अपने के इशारे से बुलाती है बहार
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
मिरा जी जलता है उस बुलबुल-ए-बेकस की ग़ुर्बत परकि जिन ने आसरे पर गुल के छोड़ा आशियाँ अपना
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलातीतो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
शे'र
हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेकजी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार