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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
वाबस्ता है हमीं से गर जब्र है ओ गर क़द्रमजबूर हैं तो हम हैं मुख़्तार हैं तो हम हैं
ख़्वाजा मीर दर्द
शे'र
बेदम शाह वारसी
शे'र
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
डरता ही रहे इंसाँ इस से उम्मीद गर है बख़्शिश कीहैं नाम इसी के ये दोनों ग़फ़्फ़ार भी है क़हहार भी है
अहक़र बिहारी
शे'र
गर तालिब-ए-अल्लाह हुआ है इ’श्क़ को पहले पैदा करप्रेम की चक्की में दिल अपना पीस पिसा कर मैदा कर
कवि दिलदार
शे'र
ख़ुदा को याद कर क्यों मुल्तजी है कीमिया-गर सेकि सोना ख़ाक से होता है पैदा ला’ल पत्थर से