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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
शे'र
महकने को गुल-ए-दाग़-ए-मोहब्बत दिल में है अपनेखटकने को है ख़ार-ए-हसरत-ए-दीदार आँखों में
कैफ़ी हैदराबादी
शे'र
उ’मूमन ख़ाना-ए-दिल में मोहब्बत आ ही जाती हैख़ुदी ख़ुद-ए’तिमादी में बदल जाये तो बंदों को
फ़क़ीर क़ादरी
शे'र
सजा कर लख़्त-ए-दिल से कश्ती-ए-चश्म-ए-तमन्ना कोचला हूँ बारगाह-ए-इ’श्क़ में ले कर ये नज़्राना
बेदम शाह वारसी
शे'र
ढ़ूंढ़े असरार-ए-ख़ुदा दिल ने जो अंधा बन कररह गया आप ही पहलू में मुअ’म्मा बन कर